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________________ दशम उद्देशक - अनुपशान्त-कलह-कषाय युक्त भिक्षु के...... २११ विवेचन - इस सूत्र में "बहियावासिय" पद का जो प्रयोग हुआ है, उसका विग्रह या व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "बहिः, - स्वगच्छाद् बहिर्वस्तुं शीलं यस्य स बहिर्वासी - अन्यगच्छवासी।" अपने गच्छ से बाहर अन्य गच्छ में जो रहता रहा हो, उसे यहाँ बहिर्वासी कहा गया है। किसी भिक्षु के पास उससे भिन्न गच्छ का भिक्षु आए और उसके साथ प्रवास करना चाहे तो उसका परिचय भलीभाँति जानना आवश्यक है। उसके विषय में अच्छी तरह पूछताछ करनी चाहिए। वैसा किए बिना तीन दिन से अधिक अपने साथ रखना दोषयुक्त है। ____ यहाँ तीन दिन की जो समयावधि संकेतित है, उसका तात्पर्य यह है कि आए हुए भिक्षु के हाव-भाव, विचार, मनोवृत्ति आदि द्वारा उसके वास्तविक स्वरूप को जानने में कुछ तो समय लग ही जाता है, किन्तु तीन दिन की सीमा का तो कदापि उल्लंघन न हो। अपरिचित भिक्षु को रखने में अनेक बाधाएं, खतरे आशंकित हैं। पंचतंत्र में कहा गया ____ 'अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्' जिसके कुल और शील का ज्ञान या परिचय न हो, वैसे किसी भी व्यक्ति को वास - आश्रय नहीं देना चाहिए, अपने साथ नहीं रखना चाहिए। अनुपशान्त-कलह-कषाय युक्त भिक्षु के साथ आहारादि ..... संभोग विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू साहिगरणं अविओसवियपाहुडं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विप्फालिय अविप्फालिय संभुंजइ सं जंतं वा साइजइ॥ १४॥ कठिन शब्दार्थ - साहिगरणं - साधिकरण - कषाय भाव युक्त, अविओसवियपाहुडंअव्युपशमित प्राभृत - कलहोपशमन रहित - कलह को उपशांत किए बिना, अकडपायच्छित्तंअकृत प्रायश्चित्त - प्रायश्चित्त किए बिना, विप्फालिय - पूछ-ताछ करके, अविष्फालिय - पूछ-ताछ किए बिना, संभुजइ - संभोग करता है - एक साथ आहारादि करता है। भावार्थ - १४. जिसने अपने द्वारा किए गए कषाय भाव जनित कलह-क्लेश को उपशांत नहीं किया हो, उसका प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं किया हो, वैसे भिक्षु के साथ जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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