SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० निशीथ सूत्र के समय नवदीक्षित को जिस आचार्य, उपाध्याय का निर्देश किया जाता है अर्थात् यह स्थापित किया जाता है कि 'तुम्हारे ये गुरु हैं', वह उसकी दिशा कही जाती है। उन आचार्य या उपाध्याय के व्यपदेश या निर्देश को छुड़ाकर अन्य आचार्य, उपाध्याय का कथन स्वीकरण करवाना उस शिष्य की दिशा का अपहरण करना कहा जाता है। ____ साध्वी के प्रसंग में जिस प्रवर्तिनी का व्यपदेश या निर्देश किया गया हो, उसके स्थान पर अन्य प्रवर्तिनी का व्यपदेश या निर्देश करना दिशापहरण है। ___इस प्रकार व्यपदेश का अपहरण करना प्रथम सूत्र में दोष पूर्ण बतलाया गया है, क्योंकि इससे साधु समाचारी का उल्लंघन होता है। ऐसा करने के गर्भ में शिष्य लोलुपता का भाव छिपा रहता है, जो परित्याज्य है। . दूसरे सूत्र में दिशापहरण के स्थान पर दिशा को विपरिणत, विपरीत परिणाम युक्त या विकृत करने का उल्लेख है। यह भी वैसा ही वर्जनीय कृत्य है, क्योंकि किसी के परिणामों को प्रतिकूल कथन द्वारा परिवर्तित करना भी एक प्रकार से यथार्थ मानसिकता का अपहरण है। सूत्र ९-१० में पूर्वदीक्षित शिष्य के अपहरण या भाव परिवर्तन का प्रायश्चित्त है और सूत्र ११-१२ में दीक्षार्थी के अपहरण या भाव परिवर्तन का प्रायश्चित्त है। ___अपहरण और विपरिणमन ये दोनों भिन्न-भिन्न क्रियाएं हैं, जो व्यक्ति से संबंध रखती है। अत: "सेहं" का अर्थ दीक्षित शिष्य समझा जाता है, वैसे ही “दिस" दिशा जिसकी हो वह दिशावान् अर्थात् दीक्षार्थी। अतः "दिस" से दीक्षार्थी का अपहरण और विपरिणमन समझ लेना चाहिए। अपरिचित भिक्षु को साथ में रखने का प्रायश्चित जे भिक्खू बहियावासियं आएसं पर तिरायाओ अविफालेता मला संवसावेंतं वा साइजइ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - बहियावासियं - बहिर्वासिक - अन्य गच्छवासी, आएसं - आगत या आए हुए, अविफालेत्ता - अविस्फालित - पूछ-ताछ या जांच-पड़ताल किए बिना, संवसावेइ - संवासित - करता है - साथ में रखता है। भावार्थ - १३. जो भिक्षु किसी अन्य गच्छ से आए हुए साधु को पृच्छा-गवेषणा या पूछ-ताछ किए बिना तीन दिन-रात से अधिक अपने साथ रखता है या रखते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy