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________________ निशीथ सूत्र ऐसा करने के पीछे एषणा, आकांक्षा या आसक्ति का भाव विद्यमान रहता है, जो भिक्षु के संयमजीवितव्य के लिए हानिप्रद है । भिक्षु का जीवन नितांत स्वात्मापेक्षी, परमात्मापेक्षी होता है। इनकी वह जरा भी परवाह नहीं करता। वह तो आत्मरमण में लीन रहता है। २०८ खान-पान की स्वादिष्टता, प्रियता का उसके जीवन में कोई महत्त्व नहीं होता। वह तो अस्वाद और अलौलुप वृत्तिपूर्वक सात्त्विक, शुद्ध, सीधा-साधा आहार लेता है। अत एव चमत्कार प्रदर्शन द्वारा किसी को प्रभावित और विमोहित करना उसके लिए सर्वथा परिवर्जनीय एवं परिहेय है। एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है, यहाँ जो गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का उल्लेख हुआ है, वह वर्तमानकाल विषयक एवं भविष्यकाल विषयक निमित्त कथन पर ही लागू होता है। अतीतकाल विषयक निमित्त कथन के विषय में त्रयोदश उद्देशक में लघुचौमासी प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। अपर-शिष्य - अपहरणादि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू सेहं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ ॥ ९ ॥ जे भिक्खू सेहं विप्परिणामेइ विप्परिणामेतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ- सेहं शैक्ष शिष्य, अवहरइ अपहृत करता है, विप्परिणामेइपरिणामों को - भावों या बुद्धि को व्यामोहित करता है- विपरीत रूप में परिवर्तित करता है। भावार्थ ९. जो भिक्षु किसी अन्य भिक्षु के शिष्य को अपहृत करता है भगा ले - - Jain Education International जाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। १०. जो भिक्षु किसी अन्य भिक्षु के शिष्य के परिणामों को विकृत, व्यामोहित या विपरिणत करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है । - ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन इन सूत्रों में प्रयुक्त ' से ' शैक्ष शब्द शिक्षा से बना है। जैन परंपरा के अनुरूप शिक्षा का अर्थ धार्मिक शिक्षा और श्रमण दीक्षा है। तदनुसार दीक्षार्थी तथा नवदीक्षित दोनों के लिए ही 'शैक्ष' शब्द का प्रयोग होता है । यहाँ दीक्षित के अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है। भिक्षु में किसी भी प्रकार की लोलुपता नहीं होनी चाहिए। लोलुपता से आत्मा का अधःपतन होता है। और तो क्या, भिक्षु में शिष्य प्राप्त करने की भी उत्कण्ठा, अभिलाषा या लिप्सा कदापि न रहे। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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