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________________ नवम उद्देशक - यदादि हेत संप्रस्थित-प्रतिनिवत्त राजा के यहाँ..... १९३ १५. जो भिक्षु नदी यात्रा हेतु प्रस्थान किए हुए क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। १६. जो भिक्षु नदी यात्रा से वापस लौटे हुए क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। . १७. जो भिक्षु पर्वतीय यात्रा हेतु प्रस्थान किए हुए क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। १८. जो भिक्षु पर्वतीय यात्रा से वापस लौटे हुए क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। ., इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इन सूत्रों में राजा द्वारा की जाने वाली तीन बहिर्यात्राओं का उल्लेख है। ... पहली यात्रा का संबंध अन्य राज्य को जीतने आदि हेतु, तदर्थ युद्ध आदि में जाने के साथ है। ... दूसरी यात्रा का संबंध आमोद-प्रमोद हेतु या लौकिक मंगलाभिषेकादि हेतु नदी तट पर जाने से है, जहाँ राजा द्वारा मनोरंजन, शुभ शकुन, मंगल संचयन आदि के निमित्त विविध लौकिक कृत्य आयोजित होते रहे हों। पर्वतीय यात्रा का संबंध भ्रमण, पर्यटन, मनोरंजन, लौकिक मांगलिक कृत्य निर्वहण आदि से है। जिन यात्राओं में राजा, सामन्त, सेनापति, उच्च अधिकारी आदि हेतु विविध प्रकार के पकवान, स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ तैयार, होते रहे हों, वहाँ से भिक्षा लेना आहार विषयक सात्त्विक चर्या के प्रतिकूल है। विविध आरम्भ-समारम्भ तो वहाँ होते ही हैं। अन्य मतानुयायियों द्वारा भिक्षु के आगमन को अमांगलिक माना जाना भी आशंकित है। वहाँ से आहार लेना ऐहिक एवं पारलौकिक (पारलौकिक एवं ऐहिक) - दोनों ही दृष्टियों से भिक्षु के लिए परिवर्जनीय तथा दूषणीय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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