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________________ नवम उद्देशक - राजसम्मानार्थ आयोजित भोज में आहार-ग्रहण..... १८९ नदी, तालाब, झील या समुद्र के तट पर जाना, उन्हें पकड़ना, खेत में जाकर फलियाँ तुड़वाना, प्राप्त करना आदि उपक्रम यहाँ संकेतित हैं। . आखेट पर गए हुए राजा का वन आदि में, नदी आदि के तट पर भोजन भी तैयार होने की तथा आमोद-प्रमोद के साथ खाने की परंपरा भी रही है। माँस, मछली आदि वहाँ पकाए ही जाते हैं। ऐसे स्थान से आहार लेना अहिंसात्मक भावना तथा भिक्षाचर्या के नियमोपनियमों के परिपालन की दृष्टि से आपत्तिजनक है, दोषयुक्त है, अत एव प्रायश्चित्त योग्य है। राजसम्मानार्थ आयोजित भोज में आहार-ग्रहण-विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उववूहणियं समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुट्ठियाए अभिण्णाए अवोच्छिण्णाए जो तमण्णं (तं असणं पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा) पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - उववूहणियं - उपबृंहणीय - शरीर-पुष्टिकारक - पौष्टिक, समीहियंसमीहित - अभीप्सित - मनोभिलाषा के अनुरूप, पेहाए - प्रेक्षित कर - देखकर, तीसे परिसाए - उस परिषद् के, अणुट्ठियाए - अनुत्थित होने पर - उठ जाने - समाप्त हो जाने से पूर्व ही, अभिण्णाए - बिखर जाने से पूर्व ही, अवोच्छिण्णाए - अविच्छिन्न - विच्छिन्न हो जाने से - उसमें भाग लेने वालों के वहाँ से चले जाने के पूर्व ही, तं - उस, अण्णं.- अन्न - आहार को। - भावार्थ - ११. जो भिक्षु क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा को कहीं उत्तम, पौष्टिक खाद्य सामग्रीपूर्ण भोज दिया जा रहा हो, उसे देख कर उस परिषद - भोज समारोह के उठने, बिखर जाने, अविच्छिन्न हो जाने से - समस्त लोगों के 'निकल जाने के पूर्व ही वहाँ से (अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप) आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - प्राचीनकाल में सामन्तों, श्रेष्ठियों तथा विशिष्टजनों द्वारा राजाओं के सम्मान में भोज के आयोजन किए जाते रहे हैं। आज भी वह परंपरा मिटी नहीं है। राजाओं का स्थान राजनेताओं, मन्त्रियों आदि ने ले लिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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