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________________ अष्टम उद्देशक - साध्वी के साथ कामासक्त व्यवहार का प्रायश्चित्त १७३ "धर्मकथा कहना तो वहाँ एक बहाना है, विडम्बना है। वैसा करता हुआ भिक्षु अपनी कामुक मानसिकता को तृप्त करता है। उसका मनोयोग दूषित और कलंकित होता है। ___ यहाँ प्रयुक्त 'अपरिमाणाए' शब्द प्रमाणातिक्रमण का द्योतक है। धार्मिक तत्त्व विषयक एक प्रश्नोत्तर चले, दो, तीन, चार या पाँच चलें - यहाँ तक तो एक प्रमाणवत्ता है, किन्तु इनसे आगे बढ़ना, प्रश्नोत्तर क्रम को उत्तरोत्तर चलाते जानां, प्रमाण - सीमा का अतिक्रमण - उल्लंघन है। वहाँ तात्त्विक प्रश्नोत्तर, धर्मचर्चा, उपदेश तो सर्वथा गौण, कृत्रिम और नगण्य होता है। प्रमाणातिक्रान्त रूप में प्रश्नोत्तर क्रम को बढ़ाता हुआ साधु मानसिक अब्रह्मचर्य का आस्वाद - सेवन करता जाता है। उस द्वारा ऐसा अशुभ आचरण कदापि न किया जाए, इस हेतु उसे जागृत, अपतित रहने की इस सूत्र में उद्बोधना, प्रेरणा प्रदान की गई है। साधारणतया स्त्रियों के बीच में रात्रि और विकाल में धर्मकथा नहीं करनी चाहिए। विशेष परिस्थिति में यहाँ पर आपवादिक छूट दी गई है। अचानक राजा का अन्तःपुर, विशिष्ट पदाधिकारी स्त्रियाँ आकर साधु को घेर लें, ऐसी परिस्थिति में जैसा गृहस्थ के घर पर खड्स संक्षेप में पूछी हुई बातों का उत्तर देता है, वैसे ही रात्रि और विकाल में चार पाँच व्याकरणों (उत्तरों) का परिमाण करके उससे अधिक अपरिमाण कथा कहने पर प्रायश्चित्त बताया गया है। यह तो विशेष परिस्थिति में आपवादिक छूट है। इसे प्रतिदिन का उत्सर्ग मार्ग नहीं समझना चाहिए। अतः इसी आगम पाठ के आधार पर सूर्योदय से पूर्व एवं सूर्यास्त के बाद उपाश्रय में अन्य लिङ्गी (साधु हो तो स्त्रियाँ एवं साध्वी हो तो पुरुष) के आने का एवं धर्मोपदेश. सुनाने का निषेध समझा जाता है। साध्वी के साथ कामासक्त व्यवहार का प्रायश्चित्त जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परगणिच्चियाए वा णिग्गंथीए सद्धिं गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्ठओ रीयमाणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिंटुवेइ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्समणपाउग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ॥ ११॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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