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________________ निशीथ सूत्र जल के भीतर कोई भिक्षु एकाकिनी स्त्री के साथ रह सके, यह संभव नहीं है। अतः यहाँ अभिधागम्य अर्थ बाधित होता है, तब लक्षणा शक्ति द्वारा इसका अर्थ उदक - जल या जलाशय के निकट होता है, जल के अन्दर नहीं। ___ इन सूत्रों में भिक्षु का एकाकिनी स्त्री के साथ रहना आदि प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि साहचर्य से, साथ रहने से मनोगत कामविकार और अधिक उद्दीप्त होता है। फलस्वरूप अब्रह्मचर्य सेवन का दूषित प्रसंग घटित होना आशंकित है, इसलिए भिक्षु ब्रह्मचर्य महाव्रत के सम्यक् परिपालन, परिरक्षण की दृष्टि से कभी भी वैसा न करे। उपर्युक्त सूत्र क्रमांक १ से ९ तक में आये हुए “एगीथिए" शब्द को यहां पर व्यक्ति वाचक नहीं समझ कर 'जाति-वाचक' समझना चाहिए। भाष्य आदि में भी बहुवचन से शब्द का अर्थ किया है। यथा - "मात्र स्त्रियों के साथ" ऐसा अर्थ समझना चाहिए। आशय यह है कि 'एक या अनेक स्त्रियों के साथ में भी' उपर्युक्त कार्य करना साधु के लिए प्रायश्चित्त का कारण है। __स्त्री समूह के मध्य धर्मकया विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू राओ वा वियाले वा इत्थिमज्झगए इत्थिसंसत्ते इत्थिपरिवुडे अपरिमाणाए कहं कहेइ कहेंतं वा साइजइ॥ १०॥ ___ कठिन शब्दार्थ - इत्थिमज्झगए - स्त्रीमध्यगत - स्त्रियों के बीच में स्थित, इत्थिसंसत्तेस्त्रीसंसक्त - स्त्री के अंगस्पर्श से युक्त - उससे सटकर बैठा हुआ, इस्थिपरिवुडे - स्त्रीपरिवृतस्त्रियों से घिरा हुआ, अपरिमाणाए - परिमाणरहित - अत्यधिक (असीमित)। भावार्थ - १०. जो भिक्षु रात में या संध्या काल में स्त्रियों के बीच स्थित होता हुआ, उनके अंग से अंग सटाता हुआ, स्पर्श करता हुआ या उनसे घिरा हुआ प्रमाण का अतिक्रमण कर धर्मकथा कहता है - प्रश्नोत्तर आदि के रूप में धर्मोपदेश करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इस सूत्र में स्त्रियों के बीच स्थित होना, उनका अंग स्पर्श किए रहना तथा उनसे घिरे हुए प्रमाणातीत - अपरिमित रूप में धर्मकथा कहना भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। ये तीनों ही ऐसे प्रसंग हैं, जो अध:पतन के हेतु हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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