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________________ १६२ निशीथ सूत्र कठिन शब्दार्थ - पसुजाई - पशुजाति, पक्खिजाई - पक्षी जाति, पक्खंसि - पंख को, पुंछंसि - पूंछ को, सीसंसि - सिर को, गहाय - गृहीत कर - पकड़ कर, उजिहइ - उज्जीवित - उल्लसित करता है, पव्विहइ - प्रविहित करता है - प्रेरित करता है, किलिंचं - बांस की सींक, अणुप्पवेसित्ता - अनुप्रविष्ट कर, अयमित्थित्तिकट्ट - यह स्त्री है, ऐसा मानकर, आलिंगेज - आलिंगन करे, परिस्सएज - परिष्वजन - विशेष रूप से आलिंगन करे, परिचुंबेज - चुंबन करे, विच्छेदेज - नख - क्षत आदि करे। ___ . भावार्थ - ८५. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन की दुर्भावना से किसी पशु या पक्षी के पंख, पूंछ या सिर को गृहीत कर - पकड़ कर उसे (उज्जीवित - उल्लसित करता है या प्रविहित - उत्प्रेरित करता है) संचालित करता है - सहलाता है अथवा (उज्जीवित - उल्लासित या प्रविहित - उत्प्रेरित) संचालित करते हुए का अनुमोदन करता है। ....८६. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन की दुर्भावना से किसी पशु या पक्षी के स्रोत - शरीर के नाक, कान आदि छिद्र स्थानों में लकड़ी, बांस की सींक, अंगुली या शलाका - लोहे की कील अनुप्रविष्ट कर संचालित - आन्दोलित करता है अथवा संचालित करते हुए . का अनुमोदन करता है। ८७. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन की दुर्भावना से किसी पशु या पक्षी को "यह स्त्री है" ऐसा मानकर उसका आलिंगन - देह के अंग विशेष का संस्पर्श करे, परिष्वजन - समस्त शरीर का आलिंगन करे, परिचुंबन करे या नख-क्षत आदि द्वारा खरोंचे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे। उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . विवेचन - काम-वासना का पथ बड़ा बीहड़ है, भीषण है और विचित्र है। वेद मोहोदय के परिणाम स्वरूप व्यक्ति अपनी कामोद्वेलित दुर्वासना की अभिव्यक्ति न जाने कितने लजास्पद रूपों में करता है, यह उपर्युक्त सूत्रों से प्रकट होता है। वह भोले पशु, पक्षियों को भी अपनी दूषित मानसिकता की लपेट में ले लेता है। उनको माध्यम बनाकर अपनी हेयपरिहेय, कुतूहल - बहुल कुप्रवृत्तियों को प्रकट करता है। प्रथम सूत्र में जिन कुचेष्टाओं का उल्लेख है, वे मुख्यतः मैथुन के लिए उद्दिष्ट स्त्री को दुष्प्रेरित करने हेतु प्रतीत होती हैं। आगे के दो सूत्रों में जैसा कि स्पष्ट रूप में उल्लेख हुआ है, स्त्री जातीय पशु, पक्षी विशेष को हीत कर ऐसी चेष्टाएं करने का वर्णन है, जो कामासक्त पुरुष स्त्री के साथ करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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