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________________ १३२ निशीथ सूत्र इसके अतिरिक्त वनस्पतिकाय, वायुकाय इत्यादि अनेकविध जीवों की विराधना का प्रसंग भी इससे जुड़ा हुआ है, जिससे अहिंसा महाव्रत व्याहत होता है। यद्यपि भिक्षु सामान्यतः ऐसा नहीं करते किन्तु आखिर वह भी तो मानव है। कदाचन कौतुकाधिक्य, कल्पित रूप में आत्मरंजन आदि हेतु ऐसी बचकानी प्रवृत्तियों में साधु न पड़ जाए इस हेतु जागरूक करने की दृष्टि से विस्तार से इन अवांछित, दोष संकुल उपक्रमों का उल्लेख हुआ है। साधु सदैव इनसे बचा रहे। औद्देशिक आदि स्थान में प्रवेश-प्रवास विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ॥ ५९॥ जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्जं अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइज्जइ॥६०॥ जे भिक्खू सपरिकम्मं सेजं अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ॥६१॥ कठिन शब्दार्थ - उद्देसियं - औद्देशिक, सेजं - शय्या, सपाहुडियं - सप्राभृतिक, सपरिकम्मं - परिकर्म युक्त। भावार्थ - ५९. जो भिक्षु औद्देशिक शय्या - आवास स्थान में अनुप्रविष्ट होता है, प्रवास करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ६०. जो भिक्षु सप्राभृतिक शय्या - आवास स्थान में अनुप्रविष्ट होता है, प्रवास करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ६१. जो भिक्षु सपरिकर्म शय्या - आवास - स्थान में अनुप्रविष्ट होता है, प्रवास करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करना वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - भिक्षु आरम्भ-समारम्भ का तीन योग और तीन करण पूर्वक त्यागी होता है। अत एव अपने निमित्त निर्मापित स्थान में रहना, अपने लिए बनाए गए आहार, वस्त्र, पात्र आदि स्वीकार करना उसके लिए सर्वथा वर्जित है। यहाँ उन स्थानों का वर्णन है, जो भिक्षु के लिए अस्वीकार्य है। उनको स्वीकार करना दोष युक्त या प्रायश्चित्त योग्य है। वे तीन प्रकार से निरूपित हुए हैं - १. औदेशिक - यह शब्द उद्देश का तद्धित प्रक्रियान्तर्गत रूप है। उद्देश का अर्थ लक्ष्य या अभिप्राय है, जिसे लक्षित या उद्दिष्ट कर जो कार्य किया जाता है, उसे औदेशिक कहा जाता है। भिक्षुओं के आवास का उद्देश्य लेकर जो भवन बनाए जाते हैं, वे औद्देशिक हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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