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________________ पंचम उद्देशक - मुखवीणिका आदि बनाने एवं बजाने का प्रायश्चित्त १३१ ५७. जो भिक्षु हरियाली - हरी घास आदि से वीणा जैसी ध्वनि निकालता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ५८. यों जो भिक्षु इस प्रकार के अन्य अनुत्पन्न शब्दों को ध्वन्यात्मक रूप में उत्पन्न करता है या उत्पन्न करते हुए का अनुमोदन करता है। उपर्युक्त सूत्रों में वर्णित दोष-स्थानों में से किसी भी दोष-स्थान का सेवन करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - स्थापत्य, प्रतिमा, चित्र, काव्य एवं संगीत - ये पाँच ललित कलाएं हैं। मनोरंजन, मानसिक हर्ष एवं उल्लास बढाने में इनकी अपनी सुंदरता के अनुकूल उपयोगिता बढ़ती जाती है। संगीत के साथ तन्तुवाद्य एवं तालवाद्य का अविनाभाव संबंध है। तन्तुवाद्यों में वीणा प्राचीनतम है और महत्त्वपूर्ण है। तर्जनी पर लगे मिराज द्वारा उन्हें झंकृत किया जाता है। वीणा से ही अन्य तन्तुवाद्यों का विकास हुआ है। इन सूत्रों में प्रयुक्त 'वीणियं' (वीणिका) शब्द वीणा का वाचक है। वीणा से ही 'स्वार्थे क' प्रत्यय लगाने से 'वीणिका' शब्द बना है। . 'सव्वं विडंबियं गीयं सव्वं नट्ट विडंबियं' इस आगम वचन के अनुसार सभी गीत और सभी नृत्य विडंबना है। यह वचन भिक्षु को उद्दिष्ट कर कहा गया है। सर्वस्व : त्यागी आत्मचेता, संयमी साधक के लिए स्वाध्याय, आत्मचिन्तन, मनन एवं तपश्चरण ही मनोरंजन, मनोविनोद या मानसिक हर्ष के हेतु हैं। इसीलिए नृत्य या गीत आदि से उसे पृथक् रहने का निर्देश दिया गया है। यहाँ.इतना अवश्य ज्ञातव्य है, अपने मनोरंजन के लिए, दूसरों को रिझाने के लिए या कुतूहलवश संगान करना दोष है। वाद्य बजाना तो अति दोष पूर्ण है। किन्तु आध्यात्मिक पदों का लयात्मक रूप में, संगानात्मक रूप में उच्चारण करना अदूषित है। इतना ही नहीं यह सत् तत्त्व आत्म सात कराने में उपयोगी भी है। यही कारण है कि जैनाचार्यों, मुनियों और लेखकों ने आध्यात्मिक ज्ञेय पदों की रचना की है। यहाँ वीणावादन के बालकोचित, कल्पित उपक्रमों का जो वर्णन हुआ है, वह सर्वथा प्रयोजन शून्य, निरर्थक और कौतुहलजनित निरर्थक औत्सुक्य का सूचक है। - मुँह, नासिका, कर्ण, नख इत्यादि अंगोपांगों से, पत्र, पुष्प, फल आदि से वीणा का वादन का अभिनय करना इतना तुच्छ कार्य है, जिसकी साधु द्वारा किए जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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