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________________ पंचम उद्देशक - सचित्त वृक्ष मूल के सन्निकट स्थित होने आदि का प्रायश्चित्त ११५ पलोएज - प्रलोकन करे - बार-बार देखे, ठाणं - स्थान संज्ञक कायोत्सर्ग, सेजं - शय्या - शयन, णिसीहियं - निषीदन - बैठना या नैषधिकी क्रिया करना, चेएइ - करता है (चयनित करता है), सज्झायं - स्वाध्याय, उद्दिसए - उद्देश करता है, समुहिसइ - समुद्देश करता है, अणुजाणइ - अनुज्ञा देता है, वाएइ - वाचना देता है, पडिच्छइ - ग्रहण करता है - लेता है, परियट्टेइ - पुनरावृत्ति करता है - दुहराता है। भावार्थ - १. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में - वृक्ष के सन्निकट सचित्त भूमि पर स्थित होकर आलोकन-प्रलोकन करता है - एक बार या अनेक बार इधर-उधर झांकता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। २. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्थान संज्ञक कायोत्सर्ग करता है, शयन करता है, निषीदन करता है - बैठता है या नैषधिकी क्रिया करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। . ३. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। . ४. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ५. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ६. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय का उद्देश करता है - अभिनव मूल पाठ की. वाचना देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ७. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय का समुद्देश करता है - कण्ठाग्र पाठ को शुद्ध एवं परिपक्व कराता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। . ८. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय की अनुज्ञा देता है - अन्य को सीखाने की आज्ञा देता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ९. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय की वाचना देता है या वाचना देते हुए का अनुमोदन करता है। १०. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय (वाचना) ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। - ___ ११. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल में स्थित होकर स्वाध्याय का पुनरावर्तन करता है या पुनरावर्तन करते हुए का अनुमोदन करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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