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________________ चतुर्थ उद्देशक - पारिहारिक के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त ११३ रहित भिक्षु, परिहारियं - पारिहारिक - परिहार संज्ञक तप रूप प्रायश्चित्त में संलग्न भिक्षु, वएजा - वदेत् - कहे, पत्तेयं पत्तेयं - पृथक्-पृथक्, भोक्खामो - भोक्ष्याव: - खायेंगे, पाहामो - पास्यावः - पीयेंगे। भावार्थ - ११५. अपारिहारिक - विशुद्ध आचारशील भिक्षु पारिहारिक भिक्षु से कहे - आर्य! तुम और मैं एक साथ अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार को प्रतिगृहीत कर - भिक्षा में प्राप्त कर लाएँ तदनन्तर हम अलग-अलग खाएंगे, पीयेंगे। . __जो ऐसा कहे या ऐसा कहते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - उपर्युक्त ११५ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान के सेवन करने वाले भिक्षु को परिहार स्थान उद्घातिक - लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में चतुर्थ उद्देशक परिसमाप्त हुआ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त "पारिहारिक" शब्द "परिहार" का तद्धित् प्रक्रिया निष्पन्न रूप है। 'परि' उपसर्ग और 'ह' धातु के योग से परिहार बनता है, जिसका अर्थ परित्याग है। पारिहारिक का अर्थ. परित्याग योग्य होता है। जो भिक्षु परिहार रूप प्रायश्चित्त तप में संलग्न होता है, वह गण या गच्छ के आचार्य के अतिरिक्त सभी साधुओं द्वारा परिहेय माना जाता है। वे उसके साथ न तो आहार-पानी लाने हेतु जाते हैं तथा न साथ में आहार ही करते हैं। क्योंकि वह प्रायश्चित्त संपन्न न हो जाने तक सर्वथा विशुद्ध नहीं माना जाता। . . ... इस सूत्र में अपारिहारिक भिक्षु का पारिहारिक भिक्षु के साथ जाना इसी कारण दोष युक्त बतलाया गया है। यद्यपि पारिहारिक भिक्षु पृथक्-पृथक् अशन-पान सेवन की बात कहता है, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ जाना भी दोष युक्त है। पारिहारिक के साथ अपारिहारिक को भिक्षार्थ आया हुआ देखकर श्रद्धावान् गृहस्थों के मन में अपारिहारिक के प्रति भी संशय उत्पन्न होना आशंकित है। इसके अतिरिक्त दोष युक्त का साहचर्य मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी निरापद नहीं कहा जा सकता। ॥ इति निशीथ सूत्र का चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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