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________________ ११२ निशीथ सत्र ऐसा करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - उपर्युक्त सूत्रों में से प्रथम सूत्र में 'साणुप्पए' पद का प्रयोग हुआ है। इसका संस्कृत रूप सानुपाद है। “पादः चतुर्थ भाग रूपः, तम्, अनुअधिकृत्य यद् भवति तद् अनुपादं, तेन सहितं सानुपादम्, तस्मिन् - सानुपादे" इस व्युत्पत्ति - विग्रह के अनुसार सानुपाद का अर्थ - "दिवस की चतुर्थ पौरुषी का चतुर्थ भाग है।' सामान्यतः दिन का प्रमाण बारह घंटे माना गया है। तीन घण्टे की एक पौरुषी मानी जाती है। प्रत्येक इन चार पौरुषियों में विभक्त है। दिवस की चौथी या अन्तिम पौरुषी तब प्रारम्भ होती है। जब सूर्यास्त होने में तीन घण्टे बाकी रहते हैं। उसका अन्तिम चतुर्थ भाग तब होता है जब सूर्यास्त में ४५ मिनट बाकी रहते हैं। तब तक उच्चार-प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन किया जाना आवश्यक है। एक के स्थान पर उच्चार-प्रस्रवण भूमियाँ तीन हो सकती है, जिनका प्रतिलेखन इस निर्दिष्ट समय में किया जाना चाहिए। भिक्षु द्वारा उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन विधि पूर्वक किया जाना चाहिए। अचित्त, कीट आदि रहित, एक हाथ से अधिक विस्तीर्ण निरवद्य स्थान में मर्यादानुरूप रीति से परिष्ठापन किया जाना विधि सम्मत्त है। इन बातों का ध्यान न रखते हुए चाहे जैसे रूप में परिष्ठापन कर देना विधि विपरीत है। ___परिष्ठापन के अनन्तर आचमन किए जाने का जो निरूपण हुआ है, तब उच्चार - मल विसर्जन से संबद्ध है, प्रस्रवण के साथ उसका संबंध नहीं है। पारिहारिक के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अपरिहारिएण परिहारियं वएज्जा - एहि अज्जो ! तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तओ पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो वा, जे तं एवं वयइ वयंतं वा साइजइ। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ ११५॥ ॥णिसीहऽज्झयणे चउत्थो उद्देसो समत्तो॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिहारिएण - अपारिहारिक - परिहार संज्ञक तप रूप प्रायश्चित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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