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________________ चतुर्थ उद्देशक- आचार्य द्वारा अदत्त - अनाज्ञप्त आहार सेवन का प्रायश्चित्त ९१ का समावेश है। चावल, गेहूँ आदि वनस्पति के अन्तर्गत ही आते हैं । यहाँ 'ओसहीओ' शब्द चावल, गेहूँ आदि के अर्थ में ही प्रयुक्त है, क्योंकि आहार इन्हीं का दिया जाता है, देह निर्वाह के लिए प्रतिदिन ये ही काम में आते हैं । औषधियाँ - दवाईयाँ तो रुग्णता में ही काम में आती हैं, वे आहार रूप नहीं हैं, चिकित्सा रूप हैं। यहाँ पर कृत्स्न औषधियों का आशय - 'ऐसे धान्य जो तीन, पांच या सात वर्षों में अचित्त योनि वाले बन गए हैं। (जिनका वर्णन स्थानांग और भगवती सूत्र में आया है) परन्तु अखण्ड होने से व्यवहार सचित्त गिने जाते हैं, ऐसे धान्यों का आहार करने का इस सूत्र में लघुमासिक प्रायश्चित्त बताया है।' इन अखण्डित धान्यों को भी उबालने या अन्य शस्त्रों द्वारा परिवर्तित कर दिया हो तो वे अखण्ड दिखते हुए भी उनको ग्रहण करने का प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिए। कृत्स्न औषधियों के उपलक्षण से 'एक-जीवी धान्यों के आहार का भी लघुमासिक प्रायश्चित्त समझना चाहिए। • आचार्य द्वारा अदत्त - अनाज्ञप्त आहार सेवन का प्रायश्चित्त जे भिक्खू आयरिएहिं अदिण्णं आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - आयरिएहिं - आचार्य, अदिण्णं - अदत्त नहीं दिया हुआ । भावार्थ २०. जो भिक्षु आचार्य द्वारा दिए बिना उनकी आज्ञा या स्वीकृति पाए बिना ही भिक्षा में प्राप्त भोज्य पदार्थों का आहार करता है अथवा आहार करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - भिक्षु संघ की आचार संहिता के अन्तर्गत यह मर्यादा या व्यवस्था है भिक्षु गृहस्थों के यहां से भिक्षा में जो भी भोज्य पदार्थ लाते हैं, वे उपाश्रय में आकर आचार्य या उपाध्याय को सौंप देते हैं । फिर आचार्य या उपाध्याय भिक्षुओं को भोजन हेतु वितीर्ण करते हैं - देते हैं। इससे सबको समान आहार प्राप्त हो जाता है, कोई विशेष भिन्नता नहीं रहती । यह समत्व का आदर्श रूप है इस प्रकार आचार्य या उपाध्याय द्वारा वितीर्ण आहार दत्त कहा जाता है । - जो भिक्षु अपने द्वारा भिक्षा में लाए हुए भोज्य पदार्थों का आचार्य या उपाध्याय को सौंपे या बतलाए बिना, उनकी स्वीकृति प्राप्त किए बिना आहार कर लेता है, उसे इस सूत्र में प्रायश्चित्त का भागी बतलाया गया है, क्योंकि यह अनुशासन विहीनता है। आचार संहिता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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