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________________ तृतीय उद्देशक मल-मूत्र परिष्ठापन - विषयक प्रायश्चित्त ८०. जो भिक्षु गन्ना, शालि ( चावल विशेष), कुसुम्ब, कपास इनके पौधों, वन, उपवन या क्षेत्र में से किसी में मल-मूत्र परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है । - ८१. जो भिक्षु अशोक, सप्तपर्ण, चंपक, आम्र इनके वृक्षों के वन या उपवन में से किसी में या तथाविध अन्य पत्र, पुष्प, फल छायायुक्त वृक्षों के या बीजों से युक्त वृक्षों के वन, उपवन में से किसी में मल-मूत्र परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ८३ विवेचन इस सूत्र के मूल पाठ में "छाओवएसु" शब्द के स्थान पर कुछ प्रतियों में "बीओवएसु" पाठ भी मिलता हैं जिसका अर्थ 'बीजों से युक्त स्थान' होता है। अपेक्षा विशेष से दोनों प्रकार का पाठ प्रसंग संगत प्रतीत होता है। इन सूत्रों में जिन-जिन स्थानों में या उनके सन्निकट साधु द्वारा मल-मूत्र परठा जाना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका मुख्य हेतु विविध जीवों की हिंसा या विराधना है । जिन-जिन स्थानों का इन सूत्रों में उल्लेख हुआ है, उनमें मल-मूत्र परठने से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेज्सकाय की हिंसा आशंकित है। इन स्थानों में उच्चार - प्रस्रवण परिष्ठापन से प्रथम अहिंसा महाव्रत व्याहत होता है । पाँचों महाव्रतों में अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। अहिंसा एक ऐसा महाव्रत है, जिसमें अन्य चार महाव्रत भी समाविष्ट हो जाते हैं। क्योंकि असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह के साथ किसी न किसी रूप में हिंसा का योग बना रहता है। गहराई से, सूक्ष्मता से अध्ययन करने से यह विषय स्पष्ट हो जाता है। जीव विराधना के साथ-साथ और भी ऐसे कारण हैं, जिनसे इन स्थानों में उच्चारप्रस्रवण - परिष्ठापन अनुचित, अनुपयुक्त तथा दोषपूर्ण है । • किसी घर के द्वार, प्रतिद्वार, प्रांगण, निकटस्थ स्थान आदि में उच्चार - प्रस्रवण परठने से गृहस्वामी के मन में पीड़ा उत्पन्न होती है, जो मानसिक हिंसा है। उसके मन में असंतोष के साथ-साथ क्रोध का उत्पन्न होना भी आशंकित है। ऐसा करने से साधुओं के प्रति गृहस्थों में अश्रद्धा एवं असम्मान का भाव उत्पन्न होता है । Jain Education International घर की तरह उपवन, उद्यान, बाग, क्षेत्र इत्यादि में उच्चार - प्रस्रवण परठे जाने से उनके मालिक दुःखित होते हैं, साधु का तिरस्कार भी कर सकते हैं, इससे साधुवृन्द की लोक में निंदा होती है। संघ की प्रतिष्ठा का हनन होता है। श्मशान भूमि में, मृतकों के दाह स्थान में, मृतकों की स्मृति में बनो गए स्तूप, देवकुल् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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