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________________ वर्द्धमान अवधिज्ञान ***** * * * ************************ ******************************************* विवेचन - जघन्य अवधिज्ञानवाला अपने उस जघन्य अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र जानता है, उतने क्षेत्र को 'जघन्य अवधिक्षेत्र' कहते हैं। परिमाण - जघन्य अवधिज्ञान वाला अंगुल का असंख्येय भाग क्षेत्र जानता है। . उपमान - अवधिज्ञान से ज्ञेय वह जघन्य क्षेत्र, उत्पत्ति समय से जिसने तीन समय का आहार ग्रहण किया है, ऐसे सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की जितनी अवगाहना . होती है, अन्यूनाधिक उतने ही प्रमाण वाला क्षेत्र समझना चाहिए। इसकी विशेष स्पष्टता इस प्रकार है-एक उत्कृष्ट अवगाहना वाला मत्स्य है। वह सहस्र योजन परिमाण वाला है। वह मत्स्य अपने ही शरीर के बाहर संलग्न प्रदेश में सूक्ष्म पनक शरीरधारी जीव के रूप में तीन समय में उत्पन्न होने वाला है। वह सूक्ष्म पनक शरीर के उचित आत्मप्रदेश की अवगाहना बनाने के लिए प्रथम समय में अपने मत्स्य शरीर से सम्बद्ध ऊँचे नीचे आत्मप्रदेशों की सैकड़ों योजनों की मोटाई का संहरण करता है और अंगुल के असंख्येय भाग मात्र मोटाई वाला तथा अपने शरीर की जितनी लम्बाई, चौड़ाई है, उस परिमाण वाला आत्म प्रदेशों का प्रतर बनाता है। दूसरे समय में, तिरछे सैकड़ों योजनों की चौड़ाई वाले आत्मप्रदेशों का संहरण करता है और अंगुल के असंख्येयं भाग मात्र मोटाई चौड़ाई वाली तथा अपने शरीर की जितनी लम्बाई है, उतने परिमाण वाली आत्मप्रदेशों की सूचि बनाता है। तीसरे समय में, सैकड़ों योजनों की लम्बाई वाले आत्मप्रदेशों का संहरण करके शरीर की जिस दिशा में पनक के रूप में उत्पन्न होता है, उस दिशा के अन्त में अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटाई, चौड़ाई, लम्बाई वाला बिन्दु वृत्त बनाता है। फिर चौथे समय में, मत्स्य अपने पूर्व शरीर को छोड़कर पनक रूप में उत्पन्न होता है। वहाँ वह पनकभव की अपेक्षा पहले, दूसरे और तीसरे समय में आहार लेकर जितनी बड़ी शरीर अवगाहना बनाता है, उतने ही-न कम न अधिक परिमाणवाला अवधिज्ञान का ज्ञेय सर्व जघन्य क्षेत्र है। संस्थान - अवधिज्ञान के इस जघन्य क्षेत्र का संस्थान लड्डु के समान सभी दिशाओं से घनवृत्त बिना पोल का पूर्ण गोल समझना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त पनक जीव का तथाप्रकार का शरीर घनवृत्त होता है। अन्य ज्ञेय - सर्वजघन्य अवधिज्ञान का स्वामी काल की अपेक्षा अतीत अनागत आवलिका का असंख्यातवाँ भाग मात्र जानता है। द्रव्य की अपेक्षा अनन्त द्रव्य जानता है। वे द्रव्य, नियम से अनन्त प्रदेशी ही होते हैं। वह अप्रदेशी परमाणु, संख्यप्रदेशी और असंख्यप्रदेशी द्रव्य नहीं जान सकता। पुद्गलं द्रव्य दो प्रकार के हैं-१. गुरुलघु (अष्टस्पर्शी) और २. अगुरुलघु (चतुःस्पर्शी) १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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