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________________ ५८ नन्दी सूत्र ************************************************************************************ धिवेचन - 'वर्द्धमान' का अर्थ है-बढ़ता हुआ। अतएव जो अवधिज्ञान पूर्व अवस्था की अपेक्षा वर्तमान अवस्था में उत्तरोत्तर वृद्धि पा रहा हो, उसे 'वर्द्धमान अवधिज्ञान' कहते हैं। स्वामी - १. जिसके पूर्व अवस्था की अपेक्षा वर्तमान अवस्था में उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय चल रहे हों तथा जिसके अवधिज्ञानावरणीय कर्म की विशुद्धि हो रही हो, उस अविरत सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान की वृद्धि होती है। २. अथवा जिसके पूर्व अवस्था की अपेक्षा वर्तमान अवस्था में उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय वाले चारित्र परिणाम चल रहे हों, जिसके चारित्रमोहनीय और अवधिज्ञानावरणीय कर्म की विशुद्धि हो रही हो, उस सर्वविरत साधु के या देशविरत श्रावक के अवधिज्ञान की वृद्धि होती है। (परम अवधिज्ञान के बाद अवधिज्ञान की वृद्धि नहीं होती।) प्रशस्त अध्यवसाय - तेजो, पद्म, शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं से रंगे हुए चित्त को-'प्रशस्त अध्यवसाय' कहते हैं। दृष्टांत - जैसे अधिकाधिक ईन्धन के डालने से और वायु के सहकार से अग्नि की ज्वालाएँ पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती है, वैसे ही उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय आदि रूप बहु बहुतर ईन्धन एवं वायु के कारण वर्द्धमान अवधिज्ञान की ज्ञानरूप पर्यायें, पूर्व अवस्था की अपेक्षा वर्तमान अवस्था में उत्तरोत्तर वृद्धि पाती है। वृद्धि का प्रकार - प्रशस्त अध्यवसाय, अवधिज्ञानावरणीय कर्म की विशुद्धि आदि की न्यूनता अधिकता के अनुसार, १. किसी अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान एक दिशा में ही बढ़ता है २. किसी का अनेक दिशा में बढ़ता है तथा ३. किसी का सभी दिशाओं में सभी ओर से बढ़ता है। - अथवा किसी का अवधिज्ञान १. पर्यव के विषय में २. किसी का पर्यव और द्रव्य के विषय में ३. किसी का पर्यव, द्रव्य और क्षेत्र के विषय में तथा ४. किसी का पर्यव, द्रव्य, क्षेत्र और काल-इन चारों के विषय में बढ़ता है। किसी के अवधिज्ञान की वृद्धि जघन्य अवधि-क्षेत्र से भी होती है। अतएव सूत्रकार अब वर्द्धमान अवधिज्ञान के स्वरूप वर्णन के प्रसंग में जघन्य अवधिक्षेत्र बताते हैं। ..- जावइआ तिसमयाहारगस्ससुहमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहण्णा ओहीखित्तं जहण्णं तु॥५५॥ प्रश्न - वह जघन्य अवधिक्षेत्र क्या है? उत्तर - सूक्ष्म पनक जीव का शरीर, तीन समय आहार लेने पर जितना क्षेत्र अवगाहित करता-रोकता है, उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का जघन्य विषय क्षेत्र है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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