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________________ १६८ नन्दी सूत्र समूल नाश कर सकता हैं इसलिए पुत्र! मेरी राय यह है कि कल प्रात:काल मैं राजा को नमस्कार करने जाऊँ और यदि मुझे देख कर राजा मुँह फेर ले, तो उसी समय तू मेरी गरदन उड़ा देना।" पुत्र ने कहा - "पिताजी! मैं ऐसा महापाप और लोकनिन्दनीय कार्य कैसे कर सकता हूँ?" सकडाल ने कहा - "पुत्र! मैं उसी समय अपने मुंह में विष रख लूंगा। इसलिये मेरी मृत्यु तो विष के कारण होगी, किन्तु उस समय मेरी गरदन पर तलवार लगाने से तुम पर से राजा का कोप दूर हो जायेगा। इस प्रकार अपने वंश की रक्षा हो जायेगी।" वंश की रक्षा के लिए श्रीयक ने अपने पिताजी की बात खेद के साथ मान ली। दसरे दिन श्रीयक को साथ ले कर सकडाल मंत्री राजा को प्रणाम करने के लिए गया। उसे देखते ही राजा ने मुंह फेर लिया। ज्यों ही वह प्रणाम करने के लिए नीचे झुका त्यों ही श्रीयक ने, उसकी गरदन पर तलवार चलाई। यह देखकर राजा ने कहा-"श्रीयक! तुमने यह क्या कर दिया?" श्रीयक ने कहा-"स्वामिन्! जो व्यक्ति आपको इष्ट न हो वह हमें इष्ट कैसे हो सकता है?" श्रीयक के उत्तर से राजा का कोप शांत हो गया। उसने कहा - "श्रीयक! अब तुम मंत्री पद स्वीकार करो।" श्रीयक ने कहा- 'देव! मैं मंत्री पद नहीं ले सकता, क्योंकि मुझ से बड़ा भाई एक और है, उसका नाम स्थूलभद्र है। बारह वर्ष हो गये वह कोशा नाम की वेश्या के घर रहता है।" श्रीयक की बात सुन कर राजा ने एक अधिकारी को आज्ञा दी कि "कोशा वेश्या के घर से स्थूलभद्र को सम्मानपूर्वक यहाँ ले आओ। उसे मंत्री पद दिया जायेगा।" राजा की आज्ञा पाकर अधिकारी कोशा वेश्या के घर पहुंचा। वहाँ जाकर उसने स्थूलभद्र को राजाज्ञा सुनाई। पिता की मृत्यु का समाचार सुन कर स्थूलभद्र को बहुत खेद हुआ। आगत अधिकारी ने विनयपूर्वक स्थूलभद्र से प्रार्थना की-“हे महानुभाव! आप राजसभा में पधारिये, राजा आपको बुलाते हैं।" उनकी बात सुन कर स्थूलभद्र राजसभा में आये। राजा ने सम्मानपूर्वक उसे आसन पर बिठाया और कहा-"मुझे खेद है कि मेरी भ्रमणा से तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है, अब तुम मंत्री पद स्वीकार करो।" राजा की बात सुन कर स्थूलभद्र विचार करने लगा - "जो मंत्री पद मेरे पिता की मृत्यु का कारण हुआ, वह मेरे लिए श्रेयस्कर कैसे हो सकेगा? संसार में मुद्रा (मायापरिग्रह) दुःखों का कारण है। आपत्तियों का घर है। कहा भी है - मुद्रेयं खलु पारवश्यजननी, सौख्यच्छिदे देहिनां नित्यं कर्कश कर्मबन्धनकरी, धर्मान्तरायावहा॥ राजार्थेकव सम्प्रति पुनः, स्वार्थ प्रजापहत्त्। तद् ब्रूमः किमतः पं मतिमतां, लोकद्वयापायकूत्॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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