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________________ अध्ययन २ ८. कोई जाल लगा कर मृग आदि प्राणियों को मारा करता है और उसके मांस को बेच कर अपनी जीविका चलाता है । ९. कोई लावक आदि पक्षियों को फंसा कर अपना तथा अपने स्वजन वर्ग का पालन करता है । १०. कोई मछली मार कर अपना आहार उत्पन्न करता है । - ११. कोई क्रूरकर्मी जीव गायों का वध करके उनके मांस और चर्म से अपना आहार उत्पन्न करता है। १२. कोई गोपालन का कार्य स्वीकार करके किसी गाय पर क्रोधित होकर उसे टोले से बाहर निकाल कर लाठियों से पीटता है । . १३. कोई कुत्तों को तथा दूसरे प्राणियों को मार कर अपनी जीविका उपार्जन करता है । १४. कोई कुत्तों के द्वारा जानवरों का घात करके अपना निर्वाह करता है। ये चौदह प्रकार के पापमय कार्य महापापी पुरुषों के द्वारा किये जाते हैं। ये सभी नरकगामी और महापातकी हैं। अतः विवेकी पुरुष को इन पापकार्यों से सदा बचते रहना चाहिए।। ३१॥ से एगइओ परिसा-मझाओ उद्वित्ता अहमेयं हणामि त्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा लावगंवा कवोयगं वा कविंजलं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ। से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खल-दाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साइं झामेइ, अण्णेण वि अगणिकाएणं सस्साइंझामावेइ, अगणिकाएणं सस्साइंझामंतं वि अण्णं समणुजाणइ। इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ।। कठिन शब्दार्थ - खलदाणेणं - खलिहान-सडा गला अन्न देने से, सुराथालएणं - सुरा स्थाल (इष्ट सिद्धि न होने) के कारण, गाहावईण - गाथापति को, गाहावंइ पुत्ताण - गाथापति पुत्रों को, सस्साई- शश्य आदि के, झामेइ - जलाता है । भावार्थ- कोई पुरुष सभा में से उठ कर प्रतिज्ञा करता है कि - "मैं इस प्राणी को मारूंगा"इस प्रकार कह कर वह तीतर, बटेर, लावक, कबूतर, कपिंजल या अन्य किसी त्रस प्राणी को मार कर अपने इस महान् पाप कर्म के कारण महापापी के नाम से अपनी प्रसिद्धि करता है। . कोई पुरुष किसी निमित्त से अथवा खलिहान (सडे गले अन्न) देने से अथवा अपनी इष्टसिद्धि न होने या अन्य किसी कारण से क्रोधित हो कर गाथापति या गाथापति पुत्रों की खेती को स्वयं अग्नि से जलाता है दूसरों से जलवाता है और जलाते हुए का अनुमोदन करता है इस कारण वह जगत् में महापापी के नाम से अपने को प्रसिद्ध करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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