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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ HHHHHH संवडस्स अणगारस्स इरिया-समियस्स, भासा-समियस्स, एसणा-समियस्स, आयाणभण्ड-मत्त णिक्खेवणा-समियस्स, उच्चारपासवण-खेलसिंघाण जल्लपारिद्वावणिया समियस्स, मण-समियस्स, वय-समियस्स, काय-समियस्स, मण-गुत्तस्स, वय-गुत्तस्स, काय-गुत्तस्स, गुत्तिंदियस्स, गुत्तबंभयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स, आउत्तं चिट्ठमाणस्स, आउत्तं णिसीयमाणस्स, आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं भुंजमाणस्स, आउत्तं भासमाणस्स, आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पाय-पुंछणं गिण्हमाणस्स वा, णिक्खिवमाणस्स वा, जाव चक्खुपम्ह-णिवाय-मवि अत्थि विमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया णाम कज्जइ। सा पढमसमए बद्धा पुढा, बितीय-समए वेइया, तइय-समए णिज्जिण्णा, सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया, वेइया णिज्जिण्णा, सेयकाले अकम्मे यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । तेरसमे किरिय-हाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जड़। । से बेमि जे य अईया, जे य पडुप्पण्णा, जे य आगमिस्सा अरिहंता, भगवंता, सवे ते एयाइं चेव तेरस किरिय-ट्ठाणाई भासिंसु वा, भासेंति वा, भासिस्सँति वा, पण्णविंसुवा, पण्णवेति वा, पण्णविस्संति वा; एवं चेव तेरसमं किरिय-ट्ठाणं सेविंसु वा, सेवंति वा, सेविस्संति वा ॥२९॥ कठिन शब्दार्थ - अत्तताए - आत्म हित के लिए, इरियासमियस्स - ईर्या समिति से युक्त, मणगुत्तस्स - मन गुप्ति से युक्त, गुत्तिंदियस्स - गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, आउत्तं - उपयोग पूर्वक, चक्खुपम्हणिवायमवि - आँख की पलक झपकाते हुए भी, विमाया - विमात्रा-विविध मात्रा वाली, सुहमा - सूक्ष्म, बद्धां - बद्ध, पुट्ठा - स्पृष्ट, वेइया - वेदित, उदीरिया - उदीरित, णिजिण्णा - निर्जीर्ण, अकम्मे - अकर्म । भावार्थ - आत्मा का अपने सच्चे स्वरूप में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाना आत्मभाव, मुक्ति अथवा निर्वाण कहलाता है । यह अवस्था जीव को कभी प्राप्त न हुई किन्तु वह अनादिकाल से दूसरे स्वरूप में स्थित होता हुआ चला आ रहा है। इसी कारण ही इसको कभी सत्य आत्मसुख की प्राप्ति नहीं हुई है। जब शुभ कर्म के उदय से जीव को यह अभिलाषा उत्पन्न होती है कि - "मैं अपने सत्य आत्मसुख को प्राप्त करूं" तब वह किसी भी सांसारिक सुख में आसक्त नहीं होता है किन्तु सब सुखों को त्याग कर उस नित्य सुख की प्राप्ति के लिये प्रवृत्त होता है। उस समय उसको उत्तमोत्तम रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द प्रलोभित नहीं कर सकते । गृहवास तो उसको पाश बन्धन के समान प्रतीत होता है। वह पुरुष माता, पिता और भाई आदि सभी सम्बन्धियों से ममता को उतार कर दीक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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