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________________ अध्ययन २ ५३ करते हैं, कोई कोई वृक्ष के मूल में रहते हैं और कोई कुटी बना कर निवास करते हैं। कोई ग्राम के आश्रय से अपना निर्वाह करने के लिए ग्राम के आसपास निवास करते हैं। ये पाखण्डी लोग यद्यपि त्रस प्राणी का घात नहीं करते हैं तथापि एकेन्द्रिय जीवों के घात से ये अपना निर्वाह करते हैं। तापस आदि प्रायः इसी तरह के होते हैं । ये लोग द्रव्य से तो कई व्रतों का आचरण करते हैं परन्तु भाव से एक भी व्रत का पालन नहीं करते हैं। भावरूप व्रतों के पालन का कारण सम्यग्दर्शन है वह इनमें नहीं होता है इसलिये ये भाव से व्रतहीन हैं । ये पाखण्डी लोग अपने स्वार्थ साधन के लिए बहुत सी कल्पित बातें लोगों से कहते हैं। इनकी बातें कुछ झूठ और कुछ सत्य होती है। ये कहते हैं कि - "मैं ब्राह्मण हूँ .. इसलिए मैं डंडा आदि से ताड़न करने योग्य नहीं परन्तु दूसरे शूद्र आदि डंडा आदि से ताड़न करने योग्य हैं इनके आगम का यह वाक्य इस बात को स्पष्ट कर रहा है, जैसे कि - "शूद्र व्यापाय प्राणायाम जपेत् किचिद् दद्यात्" तथा "क्षुद्र सत्वानामनस्थिकानां शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं भोजयेत्" अर्थात् शूद्र को मार कर प्राणायाम करे और मन्त्र जपे अथवा कुछ दान दे दे एवं बिना हड्डी के प्राणियों को एक गांड़ी भर भी मार कर ब्राह्मण को भोजन करा दे। इसी तरह वे कहते हैं कि - हम वर्गों में श्रेष्ठ हैं इसलिए हम चाहे भारी से भारी भी अपराध करें तो हमको लाठी आदि के द्वारा दण्ड न देना चाहिए परन्तु दूसरे को वध आदि दण्ड देने में भी कोई दोष नहीं है । इस प्रकार असम्बद्ध प्रलाप करने वाले ये अन्यतीर्थी विषमदृष्टि हैं इनके पास न्याय बिल्कुल नहीं है अन्यथा अपने को अदण्डनीय और दूसरे प्राणी को दण्डनीय ये कैसे कहते ? इनमें प्रथम व्रत तो होता ही नहीं साथ ही शेष चार व्रत भी नहीं होते हैं । ये स्त्रीभोग में अत्यन्त आसक्त रहते हैं अतः शब्दादि विषयों में भी इनकी आसक्ति आवश्यक है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि - "मूलमेयमहम्मस्स महादोस समुस्सबं" अर्थात् स्त्री अधर्म का मूल और दोषों की राशि है अतः जो स्त्री में आसक्त है वह सब विषयों में आसक्त है । ऐसे स्त्रीभोग में आसक्त अन्यतीर्थी कुछ काल तक थोड़ा या ज्यादा विषयों को भोग कर मृत्यु के समय शरीर को छोड़कर किल्विषी देवता होते हैं। वहां से जब इनका पतन होता है तब ये मनुष्यलोक में आकर जन्मान्ध, गूंगा और अज्ञानी होते हैं । ऐसे अन्यतीर्थियों को लोभप्रत्ययिक सावध कर्म का बन्ध होता है अतः विवेकी साधु को अर्थदण्ड से लेकर लोभप्रत्ययिक तक के १२ क्रियास्थानों को कर्मबन्ध का कारण जान कर सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।। २८॥ विवेचन - यहाँ क्रोध, मान, माया, लोभ से होने वाले कर्म का बन्ध तथा इससे पहले हिंसा, झूठ, चोरी आदि से होने वाले पाप कर्म बन्ध का वर्णन किया गया है। सामान्य रूप से बन्ध के दो भेद किये गये हैं। यथा-साम्परायिक और ऐपिथिक । कषाय के निमित्त होने वाले कर्मबन्ध को साम्परायिक कर्मवन्ध कहते हैं। क्रिया स्थान के उपरोक्त बारह भेद साम्परायिक कर्मबन्ध में जाते हैं। अतः ये बारह ही स्थान सर्वथा त्याग करने योग्य हैं। - अहावरे तेरसमे किरिय-ट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जइ । इह खलु अत्तत्ताए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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