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________________ अध्ययन १ Jain Education International ************************************************************* आदि क्रियाएँ अपने कर्मों के क्षय के लिये ही करते हैं परलोक में या इस लोक में उनका फल स्वरूप सुख प्राप्ति की इच्छा से नहीं करते हैं । वे इस लोक तथा परलोक के सुखों की तृष्णा से रहित परम वैराग्य सम्पन्न होते हैं । वे जगत् के कल्याण के लिये अहिंसामय धर्म का उपदेश करते हैं । वे धर्मोपदेश के द्वारा लोक कल्याण के सिवाय किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं करते हैं । ऐसे पुरुषों के द्वारा किये हुए उपदेशों को सुनने और समझ कर उसके आचरण करने से ही जीव कल्याण का भाजन हो सकता है अतः यह पुरुष ही पूर्वोक्त पुष्करिणी के कमल को निकालने वाले पुरुषों में से पाँचवाँ ... पुरुष है । यही पुरुष शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करके स्वयं भवसागर को पार करता है और धर्मोपदेश के द्वारा दूसरों को भी मुक्ति देता है । ऐसे पुरुष को ही श्रमण माहन, जितेन्द्रिय, ऋषि, मुनि, आदि शब्दों से विभूषित करना चाहिये ।। १५ । " 'श्रमु-‍ मु-तपसि खेदे च " इस धातु से समस्त जीवों के दुःखों को जानकर विवेचन - इस अध्ययन में पुष्करिणी व श्वेत कमल का दृष्टान्त दिया गया है। चार पुरुष तो उस कमल को लेने के लिये पुष्करिणी में गये इसलिये कीचड़ में फंस कर दुःखी हुए। पांचवां पुरुष मुनि है । वह गृहस्थों में आसक्त न होता हुआ निरपेक्ष भाव से धर्मोपदेश देता है। इस प्रकार वह अपनी आत्मा को भी संसार समुद्र में तिराता है और दूसरे जीवों को भी संसार सागर से पार करता है । उस मुनि के लिये इस सूत्र में कई पर्यायवाची शब्द दिये हैं । यथा 'श्रमण' शब्द बना है । जो तपस्या में श्रम करता है तथा जगत् के उनका दुःख दूर करने का उपाय करता है इसलिये उसे 'श्रमण' कहते हैं। 'किसी भी जीव को मत मारो' ऐसा उपदेश देने से उनको 'मा-हण' और ब्रह्मचर्य का पालन करने से उसे 'ब्राह्मण' कहते हैं । क्षमाशील होने से 'क्षान्त' इन्द्रिय और नोइन्द्रिय (मन) को वश में करने वाला होने से 'दान्त', तीन गुप्तियों से युक्त होने के कारण 'गुप्त', पांच समितियों से युक्त होने के कारण 'समित' आस्रवों से रहित होने के कारण 'मुक्त', विशिष्ट तपस्या करने के कारण 'महर्षि', जगत् के जीवों की त्रिकाल अवस्था का मनन करने वाला होने से 'मुनि', पुण्यशाली होने से 'कृती' परमार्थ का जानकार होने से 'सुकृती' तथा अध्यात्म विद्या युक्त होने से 'विद्वान्', निरवद्य भिक्षा लेकर संयम का निर्वाह करने वाला होने से 'भिक्षु' अन्त-प्रान्त आहार करने वाला होने से 'रूक्ष' और संसार के तीर (किनारा) पहुँचा हुआ एवं मोक्ष का अभिलाषी होने से 'तीरार्थी' कहलाता है । वह मुनि के मूल गुण और उत्तर गुणों का शुद्ध पालन करने वाला होने से मुक्ति को प्राप्त करने वाला होता है । त्तिबेमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हे आयुष्मन जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ । किन्तु अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ । पहला अध्ययन समाप्त ३९ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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