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________________ ३८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ - Jain Education International - जायामायावृत्तिएणं - संयंम यात्रा मात्र की वृत्ति के लिए, कामभोगाण - कामभोगों का, वसवत्ती वशवर्ती, उवसंते - उपशांत, उवट्ठिए संयम में उपस्थित, पडिविरए प्रति विरत - पाप से निवृत्त, संपराइयं - सांपरायिक, पामिच्चं - प्रामित्य- उधार लिया हुआ, अच्छेज्ज - छिना गया, अणिसिद्धं भागीदार की बिना स्वीकृति से लिया हुआ, अभिहडं सामने लाया हुआ, आएसाए - अतिथि के लिये, सामासाए - सायंकालीन भोजन के लिए, पायरासाए सुबह में खाने के लिए परिणिट्ठियं दूसरे के लिए निष्पादित, अविहिंसियं निर्जीव, एसियं- एषणा से प्राप्त, वेसियं साधु वेश से प्राप्त, सामुदाणियं - माधुकरी वृत्ति से प्राप्त, अक्खोवंजण गाड़ी के पहिए की धूरी के तेल आंजने के समान, वणलेवणभूयं व्रण (घाव) पर लेप लगाने के समान, बिलमिवपण्णगभूएणं- बिल में प्रवेश करते हुए सर्प के समान, धम्मं धर्म को, आइक्खेज्जा कहे, कम्मणिज्जरट्टयाए - कर्म निर्जरा के लिए, सव्वोवरया - सर्वात्मना उपरत, परिण्णा यगेहवासे- गृहवास का त्यागी, इसी ऋषि, कइ कृती, लूहे - रूक्ष तीरट्ठी- तीरार्थी, चरणकरणपारविऊ चरण करण पारविद्-मूल गुण उत्तर गुण पार को जानने वाला । के - - ********* - ************* For Personal & Private Use Only - - - भावार्थ - वस्तु तत्त्व को जानने वाले विज्ञ पुरुष अपने सुख दुःख के समान दूसरे प्राणियों के सुख दुःखों को जान कर उन्हें कभी भी पीड़ित करने की इच्छा नहीं करते हैं । वे यह समझते हैं कि " जैसे कोई दुष्ट पुरुष मुझ को मारता है या गाली देता है अथवा बलात्कार से अपना दासी दास आदि बना कर अपनी आज्ञा पालन कराता है तो मैं जैसा दुःख अनुभव करता हूँ इसी तरह दूसरे प्राणी भी मारने पीटने, गाली देने तथा बलात्कार से दासी दास आदि बना कर आज्ञा पालन कराने से दुःख अनुभव करते होंगे ? अतः किसी भी प्राणी को मारना, गाली देना तथा बलात्कार पूर्वक उसे दासी दास आदि बनाना उचित नहीं हैं"। वे पुरुष इस उत्तम विज्ञान के कारण पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह ही काय के जीवों को कष्ट देने वाले व्यापारों को त्याग देते हैं। ऐसे पुरुष ही धर्म के रहस्य को जानने वाले हैं क्योंकि भूत, वर्त्तमान और भविष्य तीर्थंकरों को यही धर्म अभीष्ट है वे छह प्रकार के प्राणियों को पीड़ा न देना ही धर्म का स्वरूप बतलाते हैं। इस धर्म की रक्षा के निमित्त साधु पुरुष दातौन आदि से अपने दाँतों को नहीं धोते हैं शरीर शोभार्थ आँखों में अञ्जन नहीं लगाते हैं तथा दवा लेकर वमन और विरेचन नहीं करते हैं तथा वे अपने वस्त्रों को धूप आदि के द्वारा सुगन्धित नहीं करते हैं एवं खाँसी आदि रोगों की निवृत्ति के लिये धूम्रपान नहीं करते हैं वे बयालीस दोषों का त्याग कर शुद्ध आहार ही ग्रहण करते हैं वह आहार भी केवल संयम शरीर के निर्वाह मात्र के लिये लेते हैं रस की लोलुपता से नहीं लेते हैं । वे समय के अनुसार ही समस्त क्रियायें करते हैं वे अन्न के समय में अन्न को, जल के समय में जल को और शयन के समय में शय्या को ग्रहण करते हैं इस प्रकार उनके आहार विहार आदि सभी उपयोग के साथ ही होते हैं अन्यथा नहीं होते हैं । वे अठारह प्रकार के पापों से सर्वथा निवृत्त होकर ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना करते हैं । वे तप और ब्रह्मचर्य पालन - www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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