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________________ अध्ययन ४ १२१ के बिना भी पाप कर्म का बन्ध होता हो तब तो सिद्ध भगवन्तों को भी पाप कर्म का बन्ध होना चाहिये अतः अशुभ योग न होने पर भी जो लोग पापकर्म का बन्ध बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं यही प्रश्नकर्त्ता का आशय है । **************++++++ तत्थ पण्णवए चोयगं एवं वयासी- तं सम्मं जं मए पुव्वं वृत्तं, असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वइए पावियाए, असंतएणं कारणं पावएणं, अहणंतस्स, अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवक्वस्स, सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ, तं सम्मं, कस्स णं तं हेउं ?, आयरिय आह- तत्थ खलु भगवया छजीवणिकायहेउ पण्णत्ता, तंजहा- पुढविकाइया जाव तसकाइया, इच्चेएहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पsिहयपच्चक्खायपावकम्मे णिच्चं पसढविउवात-चित्तदंडे, तंजहा-पाणाइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले ॥ कठिन शब्दार्थ - चोयए - चोदक (नोदक- प्रेरक) सम्मं - सम्यक् - यथार्थ, छजीवणिकायहेउछह जीव निकाय को हेतु, (कर्म बंध का कारण) पसढविडवातचित्तदंडे - निष्ठुरता के साथ प्राणियों के घात में चित्त लगाने वाला' । Jain Education International भावार्थ- जो जीव छह काय के जीवों की हिंसा से विरत नहीं हैं किन्तु अवसर साधन और शक्ति आदि कारणों के अभाव से उनकी हिंसा नहीं करते हैं वे उन प्राणियों के अहिंसक नहीं कहे जा सकते हैं। जिस प्राणी ने प्राणातिपात से लेकर परिग्रह पर्य्यन्त के पापों से एवं क्रोध से लेकर . मिथ्यादर्शनः शल्य तक के पापों से निवृत्ति अङ्गीकार नहीं की है वह चाहे किसी भी अवस्था में हो वह एकेन्द्रिय चाहे विकलेन्द्रिय हो परन्तु पाप के कारणभूत मिध्यात्व, अविरति प्रमाद कषाय तथा योग से युक्त होने के कारण वह पाप कर्म करता ही है उससे रहित नहीं है। अतः अव्यक्त विज्ञान वाले प्राणी भी कर्मबन्ध को प्राप्त होते हैं यह पहले का कथन यथार्थ ही है। आयरिय आह- तत्थ खलु भगवया वहए दिट्टंते पण्णत्ते, से जहाणामए वहए सिया गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं णिद्दाय पविसिस्सामि खणं लद्वणं वहिस्सामि संपहारेमाणे से किं णु हु णाम से वहए तस्स गाहावस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं णिद्दाय पविसिस्सामि खणं लद्धूणं वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमितभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ?, एवं वियागरे गे समियाए वियागरे चोयए - हंता भवइ ।। कठिन शब्दार्थ - वहए - वधक (हिंसा करने वाला), दिट्टंते- दृष्टान्त, खणं- क्षण-अवसर को, अमित्तभू- अमित्रभूत । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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