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________________ १२० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ न करने वाला भी होता है। ऐसे आत्मा को श्री तीर्थङ्कर देव ने संयम रहित, विरतिवर्जित, पाप का नाश और प्रत्याख्यान न करने वाला, सावध अनुष्ठान में रत, संवरहीन, मन वचन और काय की गुप्ति से रहित, अपने तथा दूसरे को एकान्त दण्ड देने वाला बालक की तरह हिताहित के ज्ञान से वर्जित कहा है। ये जीव किसी भी क्रिया में प्रवृत्त होते हुए यह नहीं सोचते हैं कि मेरी इस क्रिया के द्वारा दूसरे प्राणियों की क्या दशा होगी? ऐसे जीव चाहे स्वप्न भी न देखें अर्थात् उनका विज्ञान अव्यक्त हो तो भी वे पाप कर्म करते हैं ।। ६३॥ ___तत्थ चोयए पण्णवर्ग एवं वयासी-असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं कारणं पावएणं, अहणंतस्स, अमणक्खस्स अवियार-मणवयकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्जइ, कस्स णं तं हेउं ?, चोयए एवं बवीति-अण्णयरेणं मणेणं पावएणं, मणवत्तिए, पावे कम्मे कज्जइ, अण्णयरीए वईए पावियाए वइवत्तिए पावे कम्मे कजइ, अण्णयरेणं काएणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतस्स, समणक्खस्स, सवियार-मणवयकायवकारस, सुविणमवि पासओ एवंगुण-जातीयस्स पावे कम्मे कजइ। पुणरवि चोयए एवं बवीति तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वइए पावियाए, असंतएणं कारणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स, अवियारमणवयणकाय-वकस्स, सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कजइ, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु ॥ ____ कठिन शब्दार्थ - चोयए - चोदक (नोदक-प्रेरक) पृच्छक (प्रश्नकर्ता), पण्णवर्ग- प्रज्ञापक (उपदेशक), असंतएणं - नहीं होने पर, पावएणं - पाप युक्त, अहणंतस्स - हिंसा न करते हुए, अमणक्खस्स- अमनस्स-मन से भी विचार रहित (अमनस्क)। भावार्थ - प्रश्नकर्ता आचार्य के अभिप्राय को समझ कर उसका निषेध करता हुआ कहता है कि-जिस प्राणी के मन वचन और काया पाप कर्म में लगे हुए नहीं हैं जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता है तथा जो मन से हीन और मन वचन काया और वाक्य के विवेक से रहित है तथा जो स्वप्न भी नहीं देखता है यानी अव्यक्त विज्ञान वाला है वह प्राणी पापकर्म करने वाला नहीं माना जा सकता है क्योंकिमन वचन और काया के पापयुक्त होने पर ही मानसिक, वाचिक और कायिक पाप किये जाते हैं परन्तु जिन प्राणियों का विज्ञान अव्यक्त है अतएव जो पापकर्म के साधनों से हीन हैं उनके द्वारा पापकर्म किया जाना संभव नहीं है । अलबत्ता जो प्राणी समनस्क हैं और मन वचन, काया और वाक्य के विचार से यक्त हैं तथा स्वप्न दर्शक यानी स्पष्ट विज्ञान वाले हैं और प्राणियों की हिंसा करते हैं अवश्य वे पापकर्म करने वाले हैं। परन्तु जिन में प्राणियों के घात करने योग्य मन वचन और काया के व्यापार नहीं होते हैं वे पापकर्म करने वाले हैं यह कदापि नहीं हो सकता है । यदि मन वचन और काया का व्यापार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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