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________________ ৩৩ . अध्ययन २ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जिससे अपना हित हो, सुसंवुडे - सुसंवृत - इन्द्रिय और मन को अपने वश में रखना, समाहिइंदिए - . इन्द्रिय को वश में रखना, अत्तहियं - आत्महित-अपना कल्याण । . भावार्थ - साधु पुरुष, किसी भी वस्तु पर ममता न करे तथा जिससे अपना हित हो उस कार्य में सदा प्रवृत्त रहे । इन्द्रिय तथा मन से संवृत्त रहकर धर्मार्थी बने । एवं तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ जितेन्द्रिय होकर संयम का अनुष्ठान करे क्योंकि अपना कल्याण कठिनता से प्राप्त होता है । ण हि णूणं पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समुट्ठियं। मुणिणा सामाइ आहियं, णाएणं जग सव्वदंसिणा ॥३१॥ . कठिन शब्दार्थ - Yणं - निश्चय, समुट्ठियं - सम्यक् अनुष्ठान, णाएणं - ज्ञातपुत्र ने, जगसव्वदंसिणा - जगत् सर्वदर्शी- समस्त जगत् को देखने वाले । भावार्थ - समस्त जगत् को जानने और देखने वाले ज्ञातपुत्र मुनि श्री भगवान् वर्धमान स्वामी ने सामायिक आदि का कथन किया है। निश्चय जीव ने उसे सुना नहीं है अथवा सुन कर यथार्थ रूप से उसका आचरण नहीं किया है । एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा । गुरुणी छंदाणुवत्तगा विरया, तिण्णा महोघ माहियं ।। त्ति बेमि॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - मत्ता - मान कर, महंतरं - महंत्तरं-सर्वोत्तम, धम्मं - धर्म-आर्हत् धर्म, इणं - इसको,, सहिया - सहित-ज्ञानादि से सम्पन्न, छंदाणुवत्तगा - छन्दानुवर्तक-अभिप्राय के अनुसार वर्तने वाले तिण्णा - पार किया है, महोघं - महौघ-महान् ओघ-प्रवाह वाले संसार सागर को । भावार्थ - प्राणियों को हित की प्राप्ति बहुत कठिन है यह जानकर तथा यह आर्हत धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है यह.समझकर ज्ञानादिसम्पन्न, गुरु के उपदिष्ट मार्ग से चलने वाले, पाप से विरत बहुत पुरुषों ने इस संसार को पार किया है, यह मैं कहता हूँ। विवेचन - अपना हित करना आत्मा के लिये कल्याण का कारण है परन्तु उसकी प्राप्ति होना महान् कठिन है । गाथा में "महंतरं" शब्द दिया है जिसका अर्थ है 'महद् अंतर' अर्थात् छद्मस्थों द्वारा कथित भिन्न भिन्न धर्मों से वीतराग कथित धर्म का महान् अन्तर है। अथवा कर्म काटने का यह मनुष्य भव, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल आदि महान् अंतर अर्थात् अवसर प्राप्त हुआ है। ऐसे वीतराग धर्म, मनुष्य भव आदि को प्राप्त कर के बुद्धिमान् पुरुषों का कर्तव्य है कि कषाय पर सर्वथा विजय प्राप्त कर संसार । समुद्र को तीर जाय । इस सारे उद्देशक का सार यही है कि कषाय पर विजय प्राप्त करे । ॥इति दूसरा उद्देशक ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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