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________________ ७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आदि गतियों में जाती हैं । परन्तु साधु पुरुष, कपट रहित कर्म के द्वारा मोक्ष अथवा संयम में लीन होते हैं और मन वचन तथा काय से शीत उष्ण को सहन करते हैं। विवेचन - संसार में अनेक प्रकार के प्राणी हैं वे अपने अपने अभिप्राय के अनुसार हिंसा, झूठ, कपट आदि को भी धर्मकार्य मानते हैं यह उनकी अज्ञानता है अतः साधु पुरुष इन सब बातों को जानकर कषाय रहित बन कर संयम में लीन रहे तथा शीत उष्ण आदि अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव से सहन करे। कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं । कडमेव गहाय णो कलिं, णो तीयं णो चेव दावरं ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - कुजए - कुजय - जुआरी, अक्खेहिं - पासों से, दीवयं - खेलता हुआ, कडं-' कृत, एव - स्थान को ही, कलिं - कलि को तीयं - त्रेता को, दावरं - द्वापर को, गहाय - ग्रहण करके। भावार्थ - जुआ खेलने में निपुण और किसी से पराजित न होने वाला जुआरी जैसे जुआ खेलता हुआ सर्वश्रेष्ठ कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, कलि, द्वापर, और त्रेता नामक स्थानों को ग्रहण नहीं करता है उसी तरह पण्डित पुरुष सर्वश्रेष्ठ सर्वज्ञोक्त कल्याणकारी धर्म को ही स्वीकार करे जैसे-शेष स्थानों को छोड़ कर चतुर जुआरी कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है । ' विवेचन - शास्त्रीय भाषा में एक की संख्या को कलि (कल्योज) दो को द्वापरयुग्म (दावर जुम्मा) तीन को त्र्योज (तेऊगा) और चार को कृतयुग्म (कडजुम्मा) कहते हैं । कृतयुग्मं (कडजुम्मा) पूर्ण संख्या है । तेऊगा तीन को कहते हैं यह चार से एक कम है । दावर जुम्मा (द्वापर युग्म) दो को कहते हैं यह चार का आधा है । कल्योज एक को कहते हैं यह चार का चौथाई हिस्सा ही है । जैसे जुआरी कृत नामक चर्तुस्थान अर्थात् सम्पूर्ण को ही ग्रहण करता है । उसी प्रकार मुनि को भी सर्वश्रेष्ठ संयम स्थान को ही ग्रहण करना चाहिये। एवं लोगंमि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्ह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए॥२४॥ .. कठिन शब्दार्थ - ताइणा - रक्षा करने वाले, बुइए - कहा हुआ, गिण्ह - ग्रहण करे, हियं - हितकारी, कडं- कृत स्थान को, इव - तरह, सेस - शेष स्थानों को, अवहाय - छोड़ कर । भावार्थ - इस प्रकार इस लोक में जगत् की रक्षा करने वाले सर्वज्ञ ने जो सर्वोत्तम धर्म कहा है उसे कल्याण कारक और उत्तम समझकर ग्रहण करो जैसे चतुर जुआरी शेष स्थानों को छोड़कर चौथे स्थान को ग्रहण करता है। " विवेचन - ऊपर कहे हुए दृष्टान्त को इस गाथा में दार्टान्तिक रूप से कथन किया है जिस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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