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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ ६७ 000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००० भावार्थ - बहुत जनों से नमस्कार करने योग्य धर्म में सदा सावधान रहता हुआ मनुष्य, धनधान्य आदि बाह्य पदार्थों में आसक्त न रहता हुआ तालाब की तरह निर्मल होकर काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के धर्म को प्रकट करे । बहवे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समयं समीहिया । जे मोणपयं उवट्ठिए, विरइं तत्थ अकासि पंडिए ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - पुढो - पृथक्-पृथक्, समयं - समभाव से, समीहिया ( उवेहिया) - देख कर, मोणपयं - संयम में, विरइं- विरति को । भावार्थ - इस संसार में बहुत से प्राणी पृथक् पृथक् निवास करते हैं उन सब प्राणियों को समभाव से देखने वाला संयम मार्ग में उपस्थित विवेकी पुरुष उन प्राणियों के घात से विरत रहे । विवेचन - सभी प्राणी सुख चाहते हैं। दुःख सबको अप्रिय है। ऐसा जान कर मुनि किसी जीव की हिंसा न करें यावत् किसी जीव को जरा सा भी कष्ट न पहुंचावे। धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए । . सोयंति य णं ममाइणो, णो लब्भंति णियं परिग्गहं॥ ९॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पारए - पारगामी, अंतए - अंत में ममाइणो - ममता वाले, सोयंति - शोक करते हैं, णियं- अपने । भावार्थ - जो पुरुष धर्म के पारगामी और आरम्भ के अभाव में स्थित है उसे मुाने समझना चाहिए । ममता रखने वाले जीव परिग्रह के लिए शोक करते हैं और वे शोक करते हुए भी अपने परिग्रह को प्राप्त नहीं करते ।। विवेचन - मुनि शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -'मुणति-प्रतिजानीते, सर्वविरतिं इति मुनिः।' अथवा मनुते, मन्यते वा जगतः त्रिकलावस्थां इति मुनिः। __ अर्थ - जो प्राणातिपात विरमण आदि विरति (संयम) को स्वीकार करे उसे मुनि कहते हैं अथवा जगत् एवं जगत् के.जीवों के त्रिकाल अवस्था को जान कर उनकी हिंसा आदि से निवृत्त हो जाय, उन्हें मुनि कहते हैं। इह लोग दुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं । विद्धंसण धम्ममेव तं इइ, विज्जं कोऽगारमावसे ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - दुहावहः - दुःखावह-दुःख देने वाले, विऊ - विद्या, विद्धंसणधम्म - नश्वर स्वभाव, एव - ही, विज - विद्वान् जानने वाला, को- कौन पुरुष, अगारं - अगार-गृहवास में, आवसे - निवास कर सकता है। ... .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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