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________________ ५८ 00000000 कठिन शब्दार्थ - रम - निवृत्त हो जा, पलियंतं पर्यन्त नाशवान्, सण्णा मग्न आसक्त, काम मुच्छिया - काम भोग में मूर्च्छित, असंवुडा - असंवृत्त पापों से अनिवृत्त । भावार्थ - हे पुरुष ! तू पापकर्म से युक्त है अतः तू उससे निवृत्त हो जा। मनुष्यों का जीवन नाशवान् है । जो मनुष्य संसार में अथवा मनुष्य भव में आसक्त हैं तथा विषय भोग में मूर्च्छित और हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं हैं वे मोह को प्राप्त होते हैं । . विवेचन - मनुष्य का जीवन अल्प है उसमें भी संयमी जीवन काल तो अति अल्प है ऐसा जान कर जब तक यह मनुष्य जीवन समाप्त नहीं होता है तब तक धर्मानुष्ठान के द्वारा इस जीवन को सफल कर लेना चाहिये । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 300000 Jain Education International सूक्ष्म प्राणियों से पालन करना चाहिये । - जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं संमं पवेइयं ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - जययं यत्ना करता हुआ, अणुपाणा दुरुत्तरा - दुस्तर, अणुसासणं- शास्त्रोक्त रीति, एव ही, पक्कमे भावार्थ- हे पुरुष ! तू यत्न के सहित तथा समिति गुप्ति से गुप्त होकर विचरो क्योंकि सूक्ष्म प्राणियों से पूर्ण मार्ग बिना उपयोग के पार नहीं किया जा सकता है । शास्त्र में संयम पालन की जो रीति बताई है उसके अनुसार ही संयम का पालन करना चाहिए, यही सब तीर्थंकरों ने उपदेश दिया है । विरया वीरा समुट्ठिया, कोहं कायरियाई पीसणा । पाणे ण हति सव्वसो, पावाओ विरयाऽभिणिव्वुडा ॥ १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - विरया विरत पापों से निवृत्त, कोह कायरियाई पीसणा - क्रोध कातरिकादि पीषणा-क्रोध और माया आदि को दूर करने वाले, अभिणिव्वुडा - अभिनिर्वृत्त - शान्त । भावार्थ - जो हिंसा आदि पापों से निवृत्त तथा कषायों को दूर करने वाले और आरंभ से रहित हैं एवं क्रोध मान माया और लोभ को त्याग कर मन वचन और काय से प्राणियों का घात नहीं करते हैं, वे सब पापों से रहित पुरुष मुक्त जीव के समान ही शान्त हैं । विता अहमेव लुप्पए, लुप्पंति लोयंसि पाणिणो । एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुट्ठे अहियासए ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - लुप्प से रहित, अहियासए - सहन करे । भावार्थ - ज्ञानादि सम्पन्न पुरुष यह सोचे कि शीत और उष्णादि परीषहों से मैं ही नहीं पीडित - - 'युक्त, पंथा-मार्ग, पीड़ित किया जाता हूँ, सहिएहिं - ज्ञानादि संपन्न, अणिहे - क्रोधादि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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