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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एए उ तओ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, णिव्वाणमभिगच्छइ ॥ २७॥ कठिन शब्दार्थ - भावविसोहीए - भाव की विशुद्धि से, णिव्वाणं - मोक्ष को, अभिगच्छइ.प्राप्त करता है । __भावार्थ - ये तीन कर्मबन्ध के कारण हैं जिनसे पाप कर्म किया जाता है । जहाँ ये तीन नहीं हैं तथा जहाँ भाव की विशुद्धि है वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता है अपितु मोक्ष की प्राप्ति होती है । पुत्तं पिया समारब्भ, आहारेग्ज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मुणा णोवलिप्पइ ॥ २८॥ कठिन शब्दार्थ - समारब्भ - आरम्भ करके-मार कर, आहारेज - खावे, असंजए - असंयतसंयम रहित, भुंजमाणो - खाता हुआ, कम्मुणा - कर्म से, ण - नहीं, उवलिप्पइ - उपलिप्त होता है। - भावार्थ - जैसे विपत्ति के समय कोई गृहस्थ पिता अपने पुत्र को मार कर उसका मांस खाता है तो वह पुत्र का मांस खाकर भी कर्म से उपलिप्त नहीं होता है इसी तरह राग द्वेष रहित साधु भी मांस खाता हुआ कर्म से उपलिप्त नहीं होता है । । । मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिंण विज्जइ । अणवज्जमतहं तेसिं, ण ते संवुड चारिणो ॥ २९॥ कठिन शब्दार्थ - पउस्संति - द्वेष करते हैं, चित्तं - चित्त, विजइ - निर्मल होता है, अणवजमतहं - पाप नहीं होना मिथ्या है, संवुडचारिणो - संयम के साथ विचरने वाले । भावार्थ - जो मन से प्राणियों पर द्वेष करते हैं उनका चित्त निर्मल नहीं है तथा मन से द्वेष करने पर पाप नहीं होता है यह उनका कथन भी मिथ्या है अतः वे संयम के साथ विचरने वाले नहीं हैं । विवेचन - जो मानसिक हिंसा करता है उसका चित्त अशुद्ध होता है । जिसका चित्त अशुद्ध है वह अज्ञानी है । क्योंकि ज्ञानी के लिये अशुद्धि (क्लिष्ट चित्त वृत्ति) का कोई कारण ही नहीं रहता है । जिसका चित्त क्लिष्ट है उसे पाप बन्धन होता ही है । चित्त की विक्षिप्तता-अशुद्धता से ही बिना निरीक्षण के गमनागमन होता है और स्वप्न की हिंसा भी क्लिष्ट चित्त का परिणाम है, अतः पाप लगेगा ही। ___ 'मैं मारता हूँ' ऐसा चित्त का परिणाम हुए बिना हिंसा में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । और 'मैं मारता हूँ' इस चित्तवृत्ति को शुद्ध कैसे माना जाय ? जो अनासक्त है-संयमी है, वह मांस भक्षण को उद्यत ही कैसे हो सकता है । कोई मांस खाकर अनासक्त या अहिंसक नहीं रह सकता और वह निष्पाप भी नहीं रह सकता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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