SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 परियाणियाणि संकेता, पासियाणि असंकिणो। अण्णाण भय संविग्गा, संपलिंति तहिं तहिं ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - जविणो - वेगवान-चंचल, मिगा - मृग, असंकियाइं - शंका नहीं करने के स्थान में, संकियाई- शंका के योग्य स्थान में, असंकिणो - शंका नहीं करते, परियाणियाणि - रक्षा युक्त स्थान को, संकेतो- शंका करते हुए, पासित्ताणि - पाश युक्त स्थान को, अण्णाणभयसंविग्गाअज्ञान और भय से उद्विग्न, संपलिंति - जा पड़ते हैं। भावार्थ - जैसे रक्षक हीन, अतिचञ्चल और वेगवान मृग, शङ्का के अयोग्य स्थान में शंका करते हैं और शंकायुक्त स्थान में शंका नहीं करते हैं । इस प्रकार रक्षायुक्त स्थान में शंका. करने वाले और पाशयुक्त स्थान में शंका नहीं करने वाले, अज्ञान और भय से उद्विग्न वे मृग, पाश युक्त स्थान में ही जा पड़ते हैं इसी तरह अन्यदर्शनी रक्षायुक्त स्याद्वाद को छोड़ कर अनर्थयुक्त एकान्तवाद का आश्रय लेते अह तं पवेग्ज बझं, अहे बज्झस्स वा वए । मुच्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ . कठिन शब्दार्थ - अह - अथ-इसके पश्चात्, तं - उस, बझं (वझं) - बन्धन को, पवेज - लंघन कर जाय, वए - निकल जाय, मुच्चेज - छूट सकता है, पयपासाओ - पैर के बंधन से, मंदे - मूर्ख, देहए - देखता है । भावार्थ - वह मृग यदि कूद कर उस बन्धन को लाँघ जाय अथवा उसके नीचे से निकल जाय तो वह पैर के बन्धन से मुक्त हो सकता है परन्तु वह मूर्ख मृग इसे नहीं देखता है । .. अहियप्पा हियपण्णाणे, विसमंतेणुवागए । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं णियच्छइ ॥९॥ ... कठिन शब्दार्थ - अहियप्पा - अहितात्मा, अहियपण्णाणे- अहित प्रज्ञा-ज्ञान वाला, विसमंतेणुवागए - विषम प्रदेश में प्राप्त हो कर, णियच्छइ - प्राप्त होता है । भावार्थ - वह मृग अपना अहित करने वाला और अहित बुद्धि से युक्त है, वह बन्धन युक्त विषमप्रदेशों में जाकर वहाँ पदबन्धन से बद्ध होकर नाश को प्राप्त होता है । एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठि अणारिया । असंकियाइं संकंति, संकियाइं असंकिणो ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया - अनार्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy