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________________ ३२२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ बोलता है, मैथुन और परिग्रह नहीं करता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष नहीं करता है तथा । जिन जिन कार्यों से कर्म बन्ध होता है अथवा आत्मा द्वेष का पात्र बनता है उन उनसे निवृत्त होकर इन्द्रियों का विजय करता है एवं मुक्ति जाने की योग्यता प्राप्त करके शरीर की सेवा सुश्रूषा (स्नान . आदि) नहीं करता है उसे श्रमण कहना चाहिए। विवेचन - जो शरीर आदि किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता है उसे अनिश्रित कहते हैं। जो निदान (अपनी धर्म क्रिया के फल को तुच्छ वस्तु के लिये खो देता है उसे निदान कहते हैं।) नहीं करता, उसे 'अनिदान' कहते हैं। जिससे आठ प्रकार के कर्म बांधे जाते हैं उसे 'आदान' कहते हैं। उपरोक्त गुणों के साथ जो तपस्या में रत रहता है और प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का त्याग कर . . देता है, उसे ' श्रमण' कहते हैं। ___ एत्थ वि भिक्खू अणुण्णए, विणीए, णामए, दंते दविए, वोसट्ठकाए, संविधुणीय विरुवलवे परीसहोव-सग्गे, अण्झप्प-जोग-सुद्धादाणे, उवट्ठिए, ठिअप्पा, संखाए परदत्त भोई भिक्खू त्ति वच्चे ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - अणुण्णए - अनुन्नत-गर्वोन्नत नहीं, नामए - नम्रता, संविधुणीय - सहन कर, परीसहोवसग्गे - परीषह उपसर्गों को, अझप्पजोग सुद्धादाणे - अध्यात्म योग से शुद्ध स्वरूप (चारित्र) वाला, उवट्ठिए - उपस्थित, ठिअप्पा - स्थितात्मा, संखाए - विवेकी-संसार को असार जान कर, परदत्त भोई - परदत्तभोजी-दूसरों के द्वारा दिये हुए आहार को खाकर निर्वाह करने वाला। . . भावार्थ - माहन पुरुष के सूत्र में जो गुण सूत्रकार ने बताये हैं उन सभी गुणों से युक्त जो पुरुष अभिमान नहीं करता है गुरु आदि के प्रति विनय और नम्रता से व्यवहार करता है, जो इन्द्रिय और मन को वश में रखता हुआ मुक्ति के योग्य गुणों से युक्त है, एवं शरीर का शृङ्गार न करता हुआ नाना प्रकार के परीषह और उपसर्गों को सहन करता है एवं जिसका चारित्र अध्यात्म योग के प्रभाव से निर्मल है, जो शुद्ध चारित्र का पालन करता है और मोक्षमार्ग में स्थित है तथा जो संसार को सार रहित जान कर दूसरे के द्वारा दिये हुए भिक्षान्न मात्र से अपना निर्वाह करता है उसे भिक्षु कहना चाहिये । विवेचन - जो ऊपर कहे हुए श्रमण और माहण के सम्पूर्ण गुणों से युक्त है तथा अभिमान रहित, विनीत, आठ कर्मों का क्षय करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला मोक्ष का अभिलाषी, शरीर की ममता से रहित, अनेक प्रकार के परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करने वाला, अध्यात्म ज्ञान ध्यान में तल्लीन, धैर्यवान् है एवं शरीर निर्वाह के लिये भिक्षा के ४२ दोषों को टाल कर गृहस्थों के घर से शुद्ध और एषणीक थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर अपने शरीर का निर्वाह करता है, उसे भिक्षु कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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