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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000000000 विवेचन कुछ मतावलम्बियों की मान्यता है कि अपने तीर्थ का अपमान देखकर सिद्ध जीव फिर संसार में आ जाता है किन्तु उनकी यह मान्यता उचित नहीं है क्योंकि जब सब कर्मों का विनाश हो गया तो संसार में आने का कोई कारण ही नहीं है। वे राग-द्वेष रहित हैं इसलिए उनके लिए स्वमत और अन्यमत ऐसी कल्पना ही नहीं होती है। कर्मों को विदारण करने में समर्थ वह महावीर पुरुष ऐसा कार्य करता है जिससे वह इस संसार में फिर जन्म नहीं लेता है जब जन्म ही नहीं लेता है तो मरण भी नहीं होता ॥ ७ ॥ ३१२ - ण मिज्जइ महावीरे, जस्स णत्थि पुरेकडं । वाउव्व जाल- मच्चेइ, पिया लोगंसि इत्थिओ ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - मिज्जइ मरता है, पुरेकडं पूर्व कृत कर्म, वाउव्व - वायु, जालं- अग्नि की ज्वाला को अच्छे - पार कर जाता है, पिया प्रिय, लोगंसि लोक में, इथिओ - स्त्रियों को । भावार्थ - जिसको पूर्वकृत कर्म नहीं है वह पुरुष जन्मता मरता नहीं है जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को उल्लंघन कर जाता है इसी तरह वह महावीर पुरुष प्रिय स्त्रियों को उल्लंघन कर जाता है अर्थात् वह प्रिय स्त्रियों के वश में नहीं होता । : विवेचन तपस्या आदि के द्वारा पूर्व कर्मों को जिसने नष्ट कर दिया है तथा संयम के द्वारा आने वाले आस्रवों को रोक दिया है ऐसे पुरुष को यहाँ महावीर कहा है ऐसा पुरुष मुक्ति को प्राप्त कर लेता है इसीलिए वह जन्म-मरण के चक्कर में नहीं फंसता है। गाथा में 'इत्थिओ' शब्द दिया है इससे विषय वासना को ग्रहण करना चाहिए तथा चौथे महाव्रत को ग्रहण करने से पांचों महाव्रतों को ग्रहण कर लेना चाहिए । इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा । ते जणा बंधणुम्मुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ - आइमोक्खा प्रथम मोक्षगामी, बंधणुम्मुक्का - बंधन से मुक्त, णावकंखंति - इच्छा नहीं करते हैं, जीवियं जीने की । भावार्थ - जो स्त्री का सेवन नहीं करते हैं वे पुरुष सबसे प्रथम मोक्षगामी होते हैं । तथा बन्धन मुक्त वे पुरुष असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । विवेचन - इस गाथा में भी 'इत्थिओ' शब्द दिया है उसका अर्थ कामवासना, विषय भोग एवं पांच इन्द्रियों के विषय विकार लिए गए है क्योंकि न स्त्रियाँ बुरी हैं और न पुरुष बुरा है किन्तु उनमें रही हुई विषय वासना बुरी है । शास्त्रकार का अभिप्राय विषय वासना के निषेध का है क्योंकि स्त्रियाँ Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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