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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ******........ प्रकार हमको दुःख अप्रिय है, इसी प्रकार सभी जीवों को दुःख अप्रिय है। इन प्राणियों को होने वाली स्वाभाविक और औपक्रमिक वेदना को जानकर बुद्धिमान् पुरुष मन, वचन और काय से तथा करने, कराने और अनुमति देने रूप नव भेदों से इनकी पीडा से निवृत्त हो जाए। एयं खु णाणिणो सारं, जं ण हिंसइ कंचण । २६० अहिंसा समयं चेव, एयावंतं विजाणिया ।। १० ॥ कठिन शब्दार्थ - णाणिणो - ज्ञानी पुरुष का, कंचण किसी की, एयावंतं इतना ही, विजाणिया (वियाणिया ) - जाने, एयं ( एवं ) - इस प्रकार । भावार्थ - ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते हैं । अहिंसा का सिद्धान्त भी इतना ही जानना चाहिये । विवेचन जीव हिंसा से बचना और जीव हिंसा से होने वाले कर्म बंध को जानना, यही ज्ञानी का प्रधान कर्तव्य है तथा यही ज्ञानी के ज्ञान का सार है जैसा कि कहाँ है - " किं ताए पढियाए ? पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्तियं ण णायं परस्स पीडा न कायव्वा । अर्थ - उस पढाई करने से क्या लाभ ? तथा पलाल (निःसार) के समान करोड़ों पदों को पढ़ने से भी क्या लाभ ? जिनसे इतना भी ज्ञान नहीं होता हो कि दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। यही अहिंसा प्रधान शास्त्र का उद्देश्य है, इतना ही ज्ञान पर्याप्त है, दूसरे बहुत ज्ञानों का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि मोक्ष जाने वाले पुरुष के इष्ट अर्थ की प्राप्ति इतने से ही हो जाती है अतः किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिये । उड्डुं अहे य तिरिगं, जे केइ तस - थावरा । सव्वत्थ विरइं कुज्जा, संति णिव्वाण-माहियं ॥। ११ ॥ कठिन शब्दार्थ तस थावरा त्रस और स्थावर प्राणी, सव्वत्थ- सर्वत्र, विरई - विरति, संति शांति, णिव्वाणं निर्वाण, आहिंयं कहा है । भावार्थ - ऊपर नीचे और तिरछे जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उन सभी की हिंसा से निवृत्त रहने से मोक्ष की प्राप्ति कही गई है । पभू दोसे णिराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ १२ ॥ Jain Education International - - कठिन शब्दार्थ पभू प्रभु- समर्थ जितेन्द्रिय पुरुष, दोसे- दोषों को, णिराकिच्या दूर कर, विरुज्झेज्ज - विरोध करे, केणइ क़िसी के साथ । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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