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________________ २५२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - मनुष्यों की रुचि भिन्न भिन्न होती है इस कारण कोई क्रियावाद और कोई अक्रियावाद को मानते हैं तथा कोई जन्मे हुए बालक की देह काटकर अपना सुख उत्पन्न करते हैं वस्तुतः अंसंयमी पुरुष का प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है । विवेचन - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी, इन चार वादियों के ३६३ भेद होते हैं। जिनका वर्णन पहले कर दिया गया है। दूसरे को पीड़ा देने वाली क्रिया करने वाला और किसी भी पाप का त्याग नहीं किया हुआ असंयति जीव अनेक जन्मों तक प्राणियों के साथ वैर बढाता है अतएव वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाइ से साहसकारी मंदे। .. अहो य राओं परितप्पमाणे, अद्वेसु मूढे अजरामरे व्व ।। १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - आउक्खयं - आयु क्षय को अबुज्झमाणे- नहीं जानता हुआ, ममाइ - ममत्वशील. साहसकारी - बिना सोचे काम करने वाला. परितप्पमाणे - पीडित होता हआ. अजरामरे -व्व - अजर अमर की तरह । भावार्थ - आरम्भ में आसक्त अज्ञानी जीव अपनी आयु का क्षय होना नहीं जानता है । वह : वस्तुओं में ममता रखता हुआ पापकर्म करने से नहीं डरता है । वह रात दिन धन की चिन्ता में पड़ा हुआ अजर अमर की तरह धन में आसक्त रहता है । विवेचन - आरम्भ और परिग्रह में आसक्त जीव अपने आयुष्य के अमूल्य क्षण बीतते जा रहे हैं' इस बात को भी नहीं जानता। वह निरन्तर परिग्रह बढ़ाने में आसक्त रहता है और ज्यों ज्यों परिग्रह बढ़ता है त्यों-त्यों उसको स्वाभाविक मिला हुआ आनन्द और सुख घटता जाता है। जैसा कि कहा है - सोना तूं तो बडा कुपातर, तूने हमको खार किया । तूं तो सोता सुख से अन्दर, हमको चोकीदार किया। सोना जब तूं था नहीं, सोना था आराम। सोना जबतूं आ गया, सोना हुआ हराम ॥ सोना जिसके पास हो, सोने में है हार। सो ना सो ना कह रहा, बारम्बार पुकार॥. अतः मोक्षार्थी पुरुष को आरम्भ परिग्रह का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पइ सेवि य एइ मोह, अण्णे जणा तंसि हरंति वित्तं ॥ १९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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