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________________ - जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसिं कओ सिया । मंदा आरंभणिस्सिया ॥ १४ ॥ तमाओ ते तमं जंति, कठिन शब्दार्थ - वाइणो तमं दूसरे अज्ञान को, जंति प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जो लोग आत्मा को अकर्त्ता कहते हैं उन वादियों के मत में यह चतुर्गतिक संसार कैसे हो सकता है ? वस्तुतः वे, मन्द अज्ञानी हैं तथा आरम्भ में आसक्त हैं । अतः वे एक अज्ञान से निकल कर दूसरे अज्ञान को प्राप्त करते हैं । अध्ययन १ उद्देशक १ - Jain Education International १३ वादी, सिया हो सकता है, तमाओ एक अज्ञान से निकल कर, - - विवेचन- ११ वीं से १४ वीं गाथा तक देहात्मवाद और आत्म-अकर्तृत्ववाद का स्वरूप बता कर, उनकी अपूर्णता की ओर संकेत किया गया है । पहले वादी (१९वीं १२वीं गाथा) का कहना है कि यदि पंच महाभूतों की क्रिया को ही आत्मा • मान लें तो उनमें मूर्खता - विद्वता आदि विचित्रताएं कैसे सम्भव हो सकती हैं और वैसे ही एक ज्ञाता रूप जगत् मानने पर भी यही आपत्ति खड़ी होती है, क्योंकि सभी आत्माएं भिन्न भिन्न हैं; उनके विकास की न्यूनाधिकता (कमी बेशी) प्रत्यक्ष दिखाई देती है । अतः मूर्खता विद्वत्ता और कुरूपता - सुरूपता आदि लोक की विचित्रताएं पंच महाभूतों से उत्पन्न चैतन्य शक्ति को मानने पर ही सम्भव हो सकती है अर्थात् संसार की विचित्रताएं महाभूतों के व्यवस्था क्रम से उत्पन्न आत्मा की ग्राहक शक्ति पर ही आधारित है। इस विचित्रता के लिये पुण्य पाप की कल्पना भी निराधार है। क्योंकि महाभूतों की अव्यवस्था से आत्मा नष्ट हो जाती है- दूसरा शरीर धारण करने वाला कोई तत्त्व नहीं रहता । दूसरा वादी (१३वीं गाथा ) कहता है - आत्मा का अस्तित्व शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी रहता है । आत्मा को सक्रिय मान लेने से ही उसके निषेध का अवसर उपस्थित होता है । यद्यपि आत्मा बुरे • भले कार्य करते हुए दिखाई देता है, उसमें विचित्रताएं भी भासित होती हैं; परन्तु वस्तुतः ऐसा है नहींयह सब दृष्टि विपर्यास का परिणाम हैं। जैसे दर्पण के सामने कोई रंगीन वस्तु या नाचती हुई आकृति आती है तो दर्पण रंगीन और नृत्यमय दिखाई देने लगता है क्योंकि उस समय दर्पण से ध्यान हट कर उस दृश्य पर ही ध्यान केन्द्रित हो जाता है । परन्तु फिर भी दर्पण में इस प्रकार की विकृति होना भी समझदार स्वीकार नहीं करेगा। वैसे ही आत्मा में भी प्रकृति की क्रिया का प्रतिबिम्ब पड़ता है । परन्तु . आत्मा कर्त्ता नहीं है । इसे 'मुद्राप्रतिबिम्बोदय' न्याय कहते हैं । स्फटिक मणि के पास लाल फूल रख दिया जाय या उसमें लाल डोरा पिरो दिया जाय तो वह लाल सा प्रतीत होता है परन्तु वह वास्तव में लाल नहीं सफेद ही रहता है । तथापि लाल फूल और 'कुओ' इति पाठान्तर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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