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________________ .२४६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अपने पाप का फल भोगने के लिये वह पृथिवी काय आदि प्राणियों में ही बार बार जन्म लेता है। जीवहिंसा स्वयं करने और दूसरे के द्वारा करवाने एवं अनुमोदन करने से पाप उत्पन्न होता है । विवेचन - चौथी गाथा में जीव हिंसा का कथन किया गया है। यह तीन करण तीन योग से जीव हिंसा करने वाला प्राणी पापकर्म करने वाला है। इस कारण वह अपने किये हुए पाप का फल भोगने के लिये इन्हीं पृथ्वीकायादि जीवों में बार-बार जन्म लेकर अनन्त काल तक ताड़न, तापन और गालन आदि दुःखों का पात्र बनता रहता है। .. ____ मूल में "आवट्टइ" शब्द दिया है उसके स्थान पर "आउट्टइ" ऐसा पाठान्तर मिलता है। जिसका अर्थ यह है कि - बुद्धिमान् पुरुष अशुभ कर्मों का दुःख रूप फल देखकर, सुनकर, अथवा जानकर अठारह ही पापकर्मों से निवृत्त हो जाते हैं ॥ ५ ॥ आदीण-वित्ती व करेइ पावं, मंता उ एगंत-समाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रए विवेगे, पाणाइवाया विरए ठियप्पां ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - आदीण वित्ती - दीन वृत्ति वाला, एगंतसमाहिं - एकान्त समाधि का, आहु - उपदेश दिया, समाहीय - समाधि में, रए - रत, पाणाइवाया - प्राणातिपात से, विरए - ' विरत, ठियप्पा - स्थितात्मा । भावार्थ - जो पुरुष कंगाल और भिखारी आदि के समान करुणाजनक धंधा करता है वह भी पाप करता है यह जानकर तीर्थंकरों ने भावसमाधि का उपदेश दिया है । अतः विचारशील शुद्धचित्त पुरुष भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों से निवृत्त रहे । विवेचन - जो करुणाजनक शब्द बोलकर कंगाल और भिखारी की तरह पेट भरने का धन्धा, करते हैं उसे आदीनवृत्ति कहते हैं। आदीनवृत्ति' की जगह कहीं पर 'आदीनभोगी' ऐसा पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ यह है कि जो पुरुष दुःख से पेट भरता है वह भी पापकर्म उपार्जन करता है जैसा कि , कहा है - पिंडोलगेव दुस्सीले, णरगाओ ण मुच्चइ । अर्थ - रोटी टुकड़े के लिये भटकता हुआ पुरुष दुराचार, पापाचार करके नरक से नहीं छूट'; सकता है। अर्थात् कभी अच्छा आहार न मिलने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान करके नरक में भी उत्पन्न हो सकता है। सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । उट्ठाय दीणो य पुणो विसण्णो, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - समयाणुपेही - समतानुप्रेक्षी-समभाव से देखने वाला, पियं - प्रिय, । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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