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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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कठिन शब्दार्थ - लद्धे प्राप्त (लब्ध) पत्थेज्जा - इच्छा करे, आयरियाई - आचार्य के पास रह कर, आचार की, सिक्खेज्जा- शिक्षा ग्रहण करे, बुद्धाणं ज्ञानियों के, अंतिए - पास में । भावार्थ साधु मिले हुए कामभोगों की इच्छा न करे । ऐसा करने पर निर्मल विवेक साधु को उत्पन्न हो गया है यह कहा जाता है । साधु उक्त रीति से रहता हुआ सदा आचार्य के पास रहकर ज्ञान दर्शन और चारित्र की शिक्षा ग्रहण करता रहे ।
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विवेचन - जो कामभोग प्राप्त हुए हैं और स्वाधीन हैं, उन्हें जो छोड़े वह वास्तविक त्यागी कहलाता है तथा मुनि परभव के लिये ऐसे काम भोग प्राप्त करने के लिये ब्रह्मदत्त की तरह नियाणा भी न करे। मोक्षार्थी मुनि को अपने गुरु के पास रह कर सदा शास्त्रों का अभ्यास करते रहना चाहिये । सुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुपण्णं सुतवस्सियं ।
वीराजे अत्तपणेसी, धिइमंता जिइंदिया ॥ ३३ ॥
कठिन शब्दार्थ - सुस्सूसमाणो सुश्रूषा करता हुआ, उवासेंज्जा उपासना करे, सुपण्णंसुप्रज्ञ, सुतवस्सियं सुतपस्वी की, अत्तपण्णेसी जिइंदिया - जितेन्द्रिय ।
आत्म प्रज्ञा के अन्वेषी, धिइमंता - धृतिमान्,
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भावार्थ - जो स्वसमय और परसमय को जानने वाले तथा उत्तम तपस्वी हैं ऐसे गुरु की शुश्रूषा करता हुआ साधु उपासना करे। जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ तथा केवलज्ञान के धृतिमान् और जितेन्द्रिय हैं वे ही ऐसा कार्य करते हैं ।
गिहे दीव - मपासंता, पुरिसादाणीया गरा ।
ते वीरा बंधणुम्मुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ ३४ ॥
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कठिन शब्दार्थ - दीवं दीप- ज्ञान का प्रकाश अथवा द्वीप, अपासंता- नहीं देखने वाले, पुरिसादाणीया - पुरुषादानीय, बंधणुम्मुक्का - बंधनों से मुक्त, ण नहीं अवकंखंति - इच्छा करते हैं। भावार्थ - गृहवास में ज्ञान का लाभ नहीं हो सकता है यह सोचकर जो पुरुष प्रव्रज्या धारण करके उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करते हैं वे ही मोक्षार्थी पुरुषों के आश्रय करने योग्य हैं । वे पुरुष बन्धन मुक्त हैं तथा वे असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं।
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विवेचन- गृहस्थ अवस्था पाश (बन्धन) रूप है। इसमें रहते हुए यथेष्ट श्रुतज्ञान रूप भाव दीप (दीपक) प्राप्त नहीं हो सकता अथवा समुद्र आदि में प्राणियों को विश्राम देने वाले द्वीप के समान जो संसार समुद्र में प्राणियों को विश्राम देने वाला सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्म रूप भाव द्वीप है वह प्राप्त नहीं हो सकता। यह समझकर जो प्रव्रज्या अङ्गीकार करते हैं वे मूल गुण और उत्तर गुणों में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए वे स्वयं तो अपनी आत्मा का कल्याण करते ही हैं किन्तु मोक्षार्थी दूसरे पुरुषों के लिये भी आश्रय रूप बनते हैं ।
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