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________________ .. अध्ययन ९ २२३ कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मइमया । अंजु धम्मं जहातच्चं, जिणाणं तं सुणेह मे ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - कयरे - कौनसा, धम्मे - धर्म, अक्खाए - कहा है, माहणेण - जीवों को न मारने का उपदेश देने वाले, मइमया - मतिमान् (केवलज्ञानी), अंजु - ऋजु (सरल) जहातच्चयथातथ्य, जिणाणं- जिनेश्वरों के। ___ भावार्थ - केवलज्ञानी तथा जीवों को न मारने का उपदेश करने वाले भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म कहा है ? यह जम्बू स्वामी आदि का प्रश्न सुनकर श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि जिनवरों के सरल उस धर्म को मेरे से सुनो। ... विवेचन - 'माहन' शब्द का अर्थ है मा-मत, हन-मारो। किसी भी जीव को मत मारो, ऐसा जो उपदेश देते हैं उनको माहन कहते हैं। यहाँ पर यह विशेषण भगवान् महावीर स्वामी के लिये है। गाथा में - 'मतिमता' जो शब्द दिया है इसे यहां पर मतिज्ञान नहीं समझना किन्तु यहां पर मति शब्द से केवलज्ञान का ग्रहण किया गया है। जो रागद्वेष को सर्वथा जीत लेता है । उसे जिन कहते हैं। इन सब विशेषणों को भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त किया गया है। श्री जम्बूस्वामी ने अपने धर्माचार्य श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया है कि माहन, मतिमान् (केवलज्ञानी) जिन (रागद्वेष को जीतने वाला) भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म कहा है इसी का उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि यथातथ्य एवं सरल (माया कपट से रहित) धर्म को मैं तुम्हें कहता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो। "जिणाणं तं सुणेह मे" के स्थान पर "जाणगा तं सुणेह मे" ऐसा पाठान्तर मिलता है। अर्थ - हे जीवो ! उस धर्म का मैं कथन करता हूँ सो तुम ध्यान पूर्वक सुनो। माहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु बोक्कसा ।। एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभ-णिस्सिया ॥२॥ परिग्गह-णिविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवइ । । आरंभ-संभिया कामा, ण ते दुक्ख-विमोयगा ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - माहणा - ब्राह्मण, खत्तिया - क्षत्रिय, वेस्सा - वैश्य, चंडाला - चाण्डाल, बोक्कसा - वोक्कस, एसिया - एषिक, वेसिया - वैशिक, सुद्धा - शुद्र, आरंभ-णिस्सिया - आरंभ में आसक्त, परिग्गहणिविट्ठाणं - परिग्रह में आसक्त, आरंभ संभिया - आरंभ से पुष्ट, दुक्ख विमोयणा - दुःखविमोचक-दुःख का विमोचन करने वाले । भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, वोक्कस, एषिक, वैशिक, शूद्र तथा जो प्राणी आरम्भ में आसक्त रहते हैं, उन परिग्रही जीवों का दूसरे जीवों के साथ अनन्तकाल के लिये वैर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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