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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अण्णस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासइ सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च णिस्सारए होइ जहा पुलाए ।। २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णस्स अन्न के, पाणस्स पान के, इहलोइयस - इहलौकिक, अणुप्पियं - प्रिय वचन, पासत्थयं पार्श्वस्थ भाव को, कुशीलयं कुशील भाव को, णिस्सारए - नि:सार-सार रहित, पुलाए पुलाक- भूस्सा के समान । भावार्थ - जो पुरुष अन्न पान तथा वस्त्र आदि के लोभ से दाता पुरुष की रुचिकर बातें कहता है, २०४ - - - Jain Education International वह पार्श्वस्थ तथा कुशील है और वह भूस्सा के समान संयमरूपी सार से रहित है । विवेचन जैसे राजा का सेवक या उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला पुरुष राजा के वचन का अनुसरण करता है उसी तरह जो साधु दाता को प्रसन्न रखने के लिये उसकी हाँ में हाँ मिलाता है और दाता को प्रसन्न कर स्वादिष्ट भोजन आदि प्राप्त करता है वह आचार भ्रष्ट साधु पार्श्वस्थ और कुशीलपने को प्राप्त होता है । जैसे भूस्सा अन्न के दाने से रहित होकर निःसार होता है उसी तरह वह साधु भी अपने संयम को निःसार कर डालता है। ऐसा साधु केवल साधुवेश को धारण करने वाला है । किन्तु चारित्रवान नहीं है । वह इस लोक में भी निन्दित होता है और परलोक में दुर्गति का भागी बनता है । - अण्णाय - पिंडेणऽहियासज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । सद्देहि रूवेहि असज्जमाणं, सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं ॥। २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णायपिंडेण - अज्ञात पिण्ड से, अहियासएज्जा निर्वाह करे, पूयणं पूजा (प्रतिष्ठा) प्राप्त करने की, तवसा तप से, आवहेज्जा - इच्छा करे, असज्जमाणं- आसक्त न होता हुआ, गेहिं - आसक्ति, विणीय हटा कर । भावार्थ - साधु अज्ञात पिण्ड के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करें एवं शब्द रूप और सब प्रकार के विषयभोगों से निवृत्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । - - 000000000000000 विवेचन - कुशील पुरुषों का स्वरूप ऊपर बताया गया है । अब उनके प्रतिपक्ष भूत सुशील पुरुषों का वर्णन किया जाता है । इस गाथा में " अण्णाय" शब्द दिया है, जिसका अर्थ है साधु अज्ञात घरों में गोचरी करे अर्थात् जिन घरों में यह मालूम नहीं कि, साधु साध्वी आज हमारे यहां गोचरी आवेंगे उसको अज्ञात घर कहते हैं । ऐसे अज्ञात घरों से आन्तप्रान्त आहार लेकर साधु अपना जीवन निर्वाह करे । किन्तु आन्तप्रान्त आहार मिलने से मन में दीन भाव न लावे । शुद्ध संयमी पूजा सत्कार अथवा दूसरी किसी भी वस्तु की इच्छा से तप न करे । ऐसा करने से तप निः सार हो जाता है । जैसा कि कहा है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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