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________________ अध्ययन ७ पुढवी वि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कट्ठसमस्सिया य, एए दहे अगणिं समारभंते ।। ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - संपाइम सम्पातिम जीव, संपयंति - गिरते हैं, संसेयया- संस्वेदज - स्वेद से उत्पन्न प्राणी, कट्ठ समस्सिया- काठ में रहने वाले जीव, समारभंते आरंभ करने वाला, दहे - जलाता है । १९३ - भावार्थ - जो जीव अग्नि जलाता है वह पृथिवीकाय के जीव को, अप्काय के जीवों को, पतङ्ग आदि सम्पातिम (उडकर गिरने वाले) जीवों को स्वेदज प्राणी को तथा काठ में रहने वाले जीवों को जलाता है । Jain Education International विवेचन - अग्निकाय का आरम्भ करने से दूसरे प्राणियों का घात कैसे होता है ? इस शङ्का का समाधान करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं कि, पृथ्वी स्वयं सचित्त है, अप्काय भी सचित्त है तथा इनके आश्रित प्राणी भी जीव हैं एवं आग जलाने पर पतङ्ग आदि जीव उडकर उसमें गिरते हैं एवं कण्डा (गोबर का छाणा) लकड़ी आदि ईन्धन में रहे हुए जीव तथा घुण कीडी आदि काठ में रहने वाले प्राणी इन सब जीवों को वह पुरुष जलाता है जो अग्निकाय का आरम्भ करता है । अतः अग्निकाय का आरम्भ मुनिजन कदापि नहीं करते हैं । हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि आहारदेहाय पुढो सियाई । जे छिंदति आयसुहं पडुच्च, पागब्धि पाणे बहुणं तिवाई ॥ ८ ॥ - कठिन शब्दार्थ - हरियाणि - हरी वनस्पति, भूयाणि भूत-वनस्पति के जीव, विलंबगाणि - नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं, आहार देहाय - आहार और देह के लिये, पुढो - पृथक् पृथक्, सियाइ - मूल स्कंध आदि के रूप में, छिंदति - छेदन करता है, पागब्भि- धृष्ट-ठीक, तिवाई - नाश करता है । भावार्थ - हरी दूब तथा अंकुर आदि भी जीव हैं और वे जीव वृक्षों के शाखा पत्र आदि में अलग अलग रहते हैं । इन जीवों को जो अपने सुख के लिये छेदन करता है वह बहुत प्राणियों का विनाश करता है । विवेचन - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये त्रस कहलाते हैं स्वयं हलन चलन करते हैं इसलिये इनकी सजीवता साधारण लोगों के भी समझ में सरलता से आ सकती है और प्रायः सभी लोग इनको जीव मानते हैं किन्तु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये स्थावर काय हैं इनकी सजीवता सरलता से समझ में नहीं आती है इसलिये शास्त्रकार ने आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन में मनुष्य शरीर की समानता बतलाकर इन पांच स्थावर काय की सजीवता सिद्ध For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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