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________________ १८० . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ निकलता है तब चक्ररत्न उसके आगे-आगे चलता है। उसके प्रभाव से और सेनापति के प्रभाव से सब राजा लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते जाते हैं। किसी भी राजा के साथ चक्रवर्ती को युद्ध नहीं करना पड़ता है। किन्तु विजय करने की शक्ति से सम्पन्न तो होता ही है इसलिये उसको योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा है। क्योंकि वासुदेव से भी उसमें दुगुनी शक्ति होती है। प्रश्न - "युद्ध सूरा वासुदेवा" अर्थ - युद्ध में शूरवीर वासुदेव होते हैं। ऐसा कैसे कहा गया है? उत्तर - वासदेव तीन खण्ड के स्वामी होते हैं। वे जब तीन खण्ड सिद्ध करने के लिए निकलते हैं तो उन्हें कई जगह राजाओं के साथ युद्ध करना पड़ता है। युद्ध में वे किसी से पराजित नहीं होते हैं। इसीलिये उनको युद्ध शूर कहा है। कथानक में कहा जाता है कि कृष्ण वासुदेव ने ३६० बड़े-बड़े संग्राम किये थे। वासुदेवों से चक्रवर्ती की शक्ति सर्व बातों में अधिक होती है इसीलिये उनको योद्धाओं में शूरवीर कहा है। फूलों में कमल को श्रेष्ठ कहा है "क्षतात् त्रायन्ते इति क्षत्रियाः" -- कष्ट में पड़े हुए प्राणियों की जो रक्षा करे उसे क्षत्रिय कहते हैं। इस प्रकार क्षत्रियों में प्रधान भी चक्रवर्ती हैं। शास्त्रकार ने यहाँ पर 'दंतवक्के' शब्द दिया है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - ___ "दान्ता-उपशान्ता यस्स वाक्येनैव शत्रवःस दान्तवाक्यः- चक्रवर्ती इत्यर्थः" अर्थ - जिसके वचन मात्र से ही शत्रु शान्त हो जाते हैं। उसे दान्तवाक्य कहते हैं। यहां दान्तवाक्य शब्द चक्रवर्ती के लिये प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बहुत उत्तम-उत्तम दृष्टान्तों को बताकर द्राष्टान्तिक रूप से भगवान् का नाम लेकर शास्त्रकार बतलाते हैं कि इसी तरह ऋषियों में श्री वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ हैं। दाणाण सेढे अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवण्जं वयंति। . . तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - दाणाण - दानों में, अभयप्पयाणं - अभयदान, सच्चेसु - सत्यवचन में, अणवजं - अनवद्य वचन, तवेसु - तपों में, बंभचेर - ब्रह्मचर्य, उत्तमं - उत्तम श्रेष्ठ, लोगुत्तमे - लोकोत्तम-लोक में प्रधान । भावार्थ - दानों में अभयदान श्रेष्ठ हैं, सत्य में वह सत्य श्रेष्ठ हैं जिससे किसी को पीडा न हो तथा तप में ब्रह्मचर्य उत्तम है इसी तरह लोक में ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी उत्तम हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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