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________________ १३४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ दूसरा उद्देशक ओए सया ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा । भोगे समणाणं सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो एगे ॥ १ ॥ 0000000000 कठिन शब्दार्थ - ओए ओज-अकेला राग द्वेष से रहित, रज्जेज्जा विरजेज्जा - हटा दे, समणाणं साधुओं के, भोगे भोग भोगना, सुणेह - सुनो । - - Jain Education International भावार्थ - रागद्वेष रहित साधु को भोग में चित्त नहीं लगाना चाहिये । किन्तु यदि कदाचित् चित्त उधर चला जाय तो ज्ञानरूपी अंकुश लगा कर उसे हटा देना चाहिये भोग भोगना साधु के लिये लज्जा की बात है तो भी कई साधु भोग में फंस जाते हैं, उनकी कैसी बुरी हालत होती है सो आगे बताया जाता है। इस विषय में कवि ने कुत्ते का दृष्टान्त दिया है यथा कृशः काण: खंजः श्रवण रहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरक कपालार्दितगलः । व्रणैः पूयक्लिनैः कृमिकुलशतैराविलतनुः, शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ।। १॥ अर्थ - दुबला, काणा, लंगडा, बूचा (कानों से रहित) कटी पूंछ वाला, भूख और प्यास से पीड़ित, जीर्ण शरीर वाला हांडी का ठीकरा जिसके गले में पड़ा हुआ है तथा रस्सी (पीप) से भरे हुए घावों वाला एवं बिलबिलाते हुए सैकड़ों कीडों से व्याप्त शरीर वाला कुत्ता भी कुत्तिया के पीछे-पीछे भागता फिरता है यह कामदेव बडा दुष्ट है। मरे हुए को भी मार देने में कोई कसर नहीं रखता है। भोगासक्त प्राणियों की ऐसी दुर्दशा होती है। **************** अह तं तु भेय-मावणं, मुच्छियं भिक्खुं काममइवट्टं । पलिभिंदिया णं तो पच्छा, पादुद्धट्टु मुद्धि पहणंति ॥२ ॥ - कठिन शब्दार्थ - भेयं भेद को, आवण्णं प्राप्त हुए, कामं काम में, अइवट्टे - आसक्त, पलिभिंदिया - वश में जान कर, पादुद्धट्टु - पैर उठा कर, मुद्धि - शिर पर, पहणंति - प्रहार करती है। भावार्थ - चारित्र से भ्रष्ट स्त्री में आसक्त, विषय भोग में दत्तचित्त साधु को जानकर स्त्री उसके शिर पर पैर का प्रहार करती है । - जइ केसिया णं मए भिक्खू णो विहरे सह णमित्थीए । साण विहं लुंचिस्सं, णणत्थ मए चरिज्जासि ॥ ३ ॥ चित्त लगावे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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