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________________ अध्ययन ४ उद्देशक १ १२७ कठिन शब्दार्थ - मणबंधणेहिं - मन को बांधने वाले उपायों से, णेगेहिं - अनेक प्रकार के, कलुण - करुणोत्पादक-दीनभाव, विणीयं - विनीत भाव से, उवगसित्ताणं - साधु के पास आकर, मंजुलाई - मधुर, आणवयंति - आज्ञापित करती है, आज्ञा चलाती है, भिण्णकहाहिं - संयम से विमुख करने वाली काम संबंधी कथा के द्वारा । । भावार्थ - स्त्रियाँ साधु के चित्त को हरने के लिये अनेक प्रकार के उपाय करती हैं । वे करुणा जनक वाक्य बोलकर तथा विनीतभाव से साधु के समीप आती हैं । वे, साधु के पास आकर मधुर भाषण करती हैं और काम सम्बन्धी आलाप के द्वारा साधु को अपने साथ भोग करने की प्रार्थना करती हैं। . सीहं जहा व कुणिमेणं, णिब्भयमेगचरं पासेणं । एवित्थियाउ बंधति संवुडं, एगतिय-मणगारं ॥८॥ - कठिन शब्दार्थ - कुणिमेणं - मांस से, णिब्भयं - निर्भय, एगचरं - अकेला विचरने वाला, संवुडं- संवृत्त, इत्थियाउ - स्त्रियाँ । . भावार्थ - जैसे सिंह को पकड़ने वाले शिकारी मांस का लोभ दे कर अकेले निर्भय विचरने वाले सिंह को पाश में बांध लेते हैं इसी तरह स्त्रियां मन वचन और काय से गुप्त रहने वाले साधु को भी अपने पाश में बाँध लेती हैं। अह तत्थ पुणो णमयंति, रहकारो व णेमि आणुपुव्वीए। बद्धे मिए व पासेणं, फंदंते वि ण मुच्चए ताहे ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - णमयंति - झुका लेती हैं, रहकारो - रथकार, णेमि - नेमि को, बद्धे - बंधा हुआ, मिए व - मृग की तरह, पासेणं - पाश से, फंदंते - स्पंदित होता हुआ, मुच्चए - छूटता है । भावार्थ - जैसे रथकार रथ की नेमि (पुट्ठी) को क्रमशः नमा देता है इसी तरह स्त्रियां साधु को वश करके उसे क्रमशः अपने इष्ट अर्थ में झूका लेती हैं । जैसे पाश में बंधा हुआ मृग छटपटाता हुआ भी पाश से मुक्त नहीं होता है इसी तरह स्त्री के पाश में बंधा हुआ साधु प्रयत्न करने पर भी उस पाश से नहीं छूटता है। - अह सेऽणुतप्पइ पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं। .. एवं विवेग मादाय, संवासो ण वि कप्पए दविए ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - अणुतप्पइ - पश्चात्ताप करता है, पायसं - खीर, विसमिस्सं - विष मिश्रित, संवासो - स्त्रियों के साथ एक साथ रहना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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