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________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ ..१२३ उडमहे तिरियं वा, जे केई तस थावरा । सव्वत्थ विरइंकज्जा, संति णिव्वाणमाहियं ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - उग्इं - ऊर्ध्व-ऊपर अहे - अधः-नीचे, तिरियं - तिरछा, सव्वत्थ - सर्वत्र, विरई - विरति, णिव्याणं - निर्वाण पद को। भावार्थ - ऊपर नीचे अथवा तिरछे जो त्रस और स्थावर जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा से सब काल में निवृत्त रहना चाहिये। ऐसा करने से जीव को शान्ति रूपी निर्वाणपद प्राप्त होता है । विवेचन - इस गाथा में प्राणातिपात विरमण व्रत का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सबका ग्रहण किया गया है। मुनि को चौदह ही जीवस्थानों में तीन करण तीन योग से प्राणातिपात से निवृत्त हो जाना चाहिये। इस प्रकार यहाँ मूल गुण और उत्तर गुण का कथन किया गया है और उसका फल यह है - कर्म रूपी दाह की शान्ति हो जाती है। बस ! इसी को निर्वाण अर्थात् समस्त दुःखों की निवृत्ति रूप मोक्ष पद कहा गया है । इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - गिलाणस्स - बीमार की, धम्मं - धर्म को, आदाय - ग्रहण करके । भावार्थ - काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके साधु समाधि युक्त रहता हुआ अग्लान भाव से ग्लान साधु की सेवा करे । संखाय पेसलं धम्मं, दिट्ठिमं परिणिव्वुडे । वसग्गे णियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएग्जासि ॥त्ति बेमि ।। कठिन शब्दार्थ - संखाय - अच्छी तरह जानकर, णियामित्ता - सहन करके। . भावार्थ - सम्यग्दृष्टि शान्त पुरुष मोक्ष देने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । ऐसा मैं कहता हूँ । ... त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। ॥इति चौथा उद्देशक ॥ .. ॥उपसर्ग नामक तीसरा अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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