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________________ अध्ययन ३ उद्देशक ३ ११३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नहीं यह आपका कथन वीतराग भगवन्तों के कथन से विरुद्ध है। सर्वज्ञ भगवन्तों की ऐसी प्ररूपणा नहीं है। आप लोग भी साधु को आहार आदि लाकर देना आदि के लिये गृहस्थ को प्रेरणा करते हैं तथा इस कार्य का अनुमोदन भी करते हैं। यह साधु का रोगी साधु के प्रति उपकार ही है। सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । तओ वायं णिराकिच्चा, ते भुज्जो वि पगब्भिया ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - अणुजुत्तीहिं - युक्तियों के द्वारा, वायं - वाद को, णिराकिच्चा - छोड़ कर, भुज्जो - पुनः, पगब्भिया - धृष्टता । भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्पूर्ण युक्तियों के द्वारा जब अपने पक्ष को स्थापन करने में समर्थ नहीं होते हैं तब वाद को छोड़कर फिर दूसरी तरह अपने पक्ष की सिद्धि की धृष्टता करते हैं । विवेचन - सत्य पक्ष को स्थापित करना वाद कहलाता है। इस वाद को छोड़ कर असत्य पक्ष को स्थापित करने के लिये युक्तियां देना विवाद (वितण्डावाद) कहलाता है। सत्य पक्ष के लिये एक ही युक्ति चन्दन के तुल्य है और असत्य पक्ष को स्थापित करने के लिये अनेक युक्तियां भी एरण्ड की लकड़ियों के समान है। एक ज्ञानी पुरुष अनेक अज्ञानियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। .. रागदोसाऽभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिया । आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं ॥ १८॥ कठिन शब्दार्थ - रागदोसाऽभिभूयप्पा - राग द्वेष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, मिच्छत्तेण - मिथ्यात्व से, अभिया - अभिद्रुत-व्याप्त, आउस्से - आक्रोश, टंकणा - म्लेच्छ जाति विशेष, पव्वयंपर्वत का ।.. भावार्थ - राग और द्वेष से जिनका हृदय दबा हुआ है तथा जो मिथ्यात्व से भरे हुए हैं ऐसे अन्यतीर्थी जब शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं तब गाली गलौज और मारपीट का आश्रय लेते हैं जैसे पहाड़ पर रहने वाली कोई म्लेच्छ जाति, युद्ध में हार कर पहाड़ का शरण लेती है । बहुगुणप्पगप्पाइं, कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणऽण्णे णो विरुण्झेजा, तेण तं तं समायरे ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - बहुगुणप्पगप्पाइं - जिनसे बहुत गुण उत्पन्न होते ऐसे अनुष्ठानों को, अत्तसमाहिए - आत्म समाधि वाला विरुण्झेजा - विरोध करे, समायरे - आचरण करे । भावार्थ - परतीर्थी के साथ वाद करता हुआ मुनि अपनी चित्तवृत्ति को प्रसन्न रखता हुआ जिससे अपने पक्ष की सिद्धि और पर पक्ष की असिद्धि हो ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण आदि का प्रतिपादन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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