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________________ श्री स्थानांग सूत्र ३० 000000 काय परिचारणा वाले देवों से स्पर्श परिचारणा वाले देव अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर रूप, शब्द, मन की परिचारणा वाले देव पूर्व पूर्व से अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। परिचारणा रहित देवता और भी अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। प्रतिघात, आजीविक, राज चिह्न पंचविहा पडिहा पण्णत्ता तंजहा गइपडिहा, ठिइपडिहा, बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बल वीरिय पुरिसकार परक्कम पडिहा । पंचविहे आजीविए पण्णत्ते तंजहा- जाइआजीवे, कुलाजीवे, कम्माजीवे, सिप्पाजीवे, लिंगाजीवे । पंच रायककुहा पण्णत्ता तंजहा - खग्गं, छत्तं, उप्फेसं, उवाणहाओ, वालवीयणी ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - पड़िहा - प्रतिघात, बल वीरिय पुरिसकार परक्कम पडिहा - बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम का प्रतिघात, आजीविए आजीविक - आजीविका करने वाले, कम्माजीवे कर्म करके आजीविका करने वाले, सिंप्पाजीवे शिल्पकार्य करके आजीविका करने वाले, लिंगाजीवे - लिंग धारण . करके आजीविका करने वाले, रायककुहा राजा के चिह्न, खग्गं खड्ग, छत्तं - छत्र, उप्फेसंमुकुट, उवाणहाओ - उपानत् (पगरखी) वालवीयणी- बालव्यजनी - चामर । - भावार्थ पांच प्रकार का प्रतिघात कहा गया है यथा गति प्रतिघात, स्थिति प्रतिघात, बन्धनप्रतिघात, भोगप्रतिघात और बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम का प्रतिष्यत । पांच प्रकार के अविक यानी आजीविका करने वाले कहे गये हैं यथा अपनी जाति बतला कर आजीविका करने वाला, अपना कुल बता कर आजीविका करने वाला, खेती आदि कर्म करके आजीविका करने वाला शिल्प यानी तूणना, बुनना आदि कार्य करके आजीविका करने वाला और साधु आदि का लिङ्ग धारण करके आजीविका करने वाला । पांच राजा के चिह्न कहे गये हैं यथा यानी पगरखी और बालव्यजनी यानी चामर । खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् विवेचन प्रतिबन्ध या रुकावट को प्रतिघात कहते हैं। पाँच प्रतिघात इस प्रकार हैं १. गति प्रतिघात २. स्थिति प्रतिघात ३ बन्धन प्रतिघात ४. भोग प्रतिघात ५. बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम प्रतिघात । - - Jain Education International - - - For Personal & Private Use Only = - १. गति प्रतिघात - शुभ देवगति आदि पाने की योग्यता होते हुए भी विरूप (विपरीत) कर्म करने से उसकी प्राप्ति न होना गति प्रतिघात है। जैसे दीक्षा पालने से कण्डरीक को शुभ गति पाना था । लेकिन नरक गति की प्राप्ति हुई और इस प्रकार उसके देवगति का प्रतिघात हो गया । - २. स्थिति प्रतिघात - शुभ स्थिति बान्ध कर अध्यवसाय विशेष से उसका प्रतिघात कर देना अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी स्थिति में परिणत कर देना स्थिति प्रतिघात है । ३. बन्धन प्रतिघात- बन्धन नामकर्म का भेद है। इसके औदारिक बन्धन आदि पाँच भेद हैं। www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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