SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री २६६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 होता है उसे गतिबन्ध परिणाम कहते हैं, जैसे नारक जीव मनुष्य गति या तिर्यञ्चगति की आयु बांध सकता है, देवगति और नरकगति की नहीं। इसी तरह देव गति का जीव मनुष्य गति या तिर्यंच गति का आयु बांध सकता है, किन्तु देवगति और नरकगति का नहीं। स्थितिपरिणाम - आयुकर्म की जिस शक्ति से जीव गति विशेष में अन्तर्मुहूर्त से लेकर तेतीस सागरोपम तक रहता है । स्थितिबन्धन परिणाम - आयुकर्म की जिस शक्ति से जीव आगामी भव के लिए नियत स्थिति की आयु बांधता है उसे स्थितिबन्धन परिणाम कहते हैं । जैसे तिर्यञ्च आयु में रहा हुआ जीव देवगति की आयु बांधने पर उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की ही बांध सकता है । ऊर्ध्व गौरवपरिणाम - आयुकर्म के जिस स्वभाव से जीव में ऊपर जाने की शक्ति आ जाती है, जैसे पक्षी आदि में । अधोगौरवपरिणाम - जिससे नीचे जाने की शक्ति प्राप्त हो । तिर्यग्गौरवपरिणाम- जिससे तिछे जाने की शक्ति प्राप्त हो । दीर्घगौरवपरिणाम - जिससे जीव को बहुत दूर तक जाने की शक्ति प्राप्त हो । इस परिणाम के उत्कृष्ट होने से जीव लोक के एक कोने से दूसरे कोने तक जा सकता है । ह्रस्वगौरवपरिणाम - जिससे थोड़ी दूर चलने की शक्ति हो । नवनवमिका भिक्षुपडिमा ईक्यासी रातदिन में पूर्ण होती है और इसमें ४०५ भिक्षा की दत्तियाँ होती है । इस प्रकार इसका सूत्रानुसार आराधन किया जाता है। नौ प्रकार का प्रायश्चित्त कहा गया है यथाआलोचनाहं यावत् मूलाह और अनवस्थाप्याह । ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें ठाणे में और भगवती सूत्र के २५ वें शतक में प्रायश्चित्त के दस भेद बतलाये गये हैं। परन्तु यहाँ नवमा स्थान होने से नव ही भेद कहे गये हैं। दसवां भेद पाराञ्चिक प्रायश्चित्त हैं। नौ कूटों वाले पर्वत जंबूमंदर दाहिणेणं भरहे दीहवेयड्ढे णव कूडा पण्णत्ता तंजहा - सिद्धे भरहे खंडग माणी, वेयड्ड पुण तिमिसगुहा । भरहे वेसमणे य, भरहे कूडाण णामाई ॥१॥ जंबूमंदर दाहिणेणं णिसहे वासहरपव्वए णव कूडा पण्णत्ता तंजहा - सिद्धे णिसहे हरिवास विदेह हरि धिइ य सीओआ । अवरविदेहे रुयगे, णिसहे कूडाण णामाणि ॥ २॥ - जंबूमंदर पव्वए णंदणवणे णव कूडा पण्णत्ता तंजहा - णंदणे मंदरे चेव णिसहे हेमवए रयय रुयगे य । सागरचित्ते वइरे, बलकूडे चेव बोद्धव्वे ॥३॥ जंबूहीवे दीवे मालवंते वक्खारपव्वए णव कूडा पण्णत्ता तंजहा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy