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________________ २३० श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 - कठिन शब्दार्थ - पिइयंगा - पिता के अंग, अट्ठी- हड्डी, अद्विमिंजा - अस्थि मिंजा, केसमंसुरोम णहे - केश, दाढी, मूंछ, रोम, नख, माउयंगा - माता के अंग, मंसे - मांस, सोणिए - शोणित, मत्थुलिंगेमस्तक लिंग-मस्तक के बीच में रहने वाली भेजी। भावार्थ - पिता के तीन अङ्ग कहे गये हैं यथा - हड्डी, अस्थिमिंजा यानी हड्डियों के बीच का रस केश, दाढी, मूछ, रोम और नख। तीन माता के अङ्ग कहे गये हैं यथा - मांस, शोणित यानी खून और मस्तक के बीच में रहने वाली भेजी तथा मेद फिप्फिस आदि। विवेचन - संतान में पिता के तीन अंग होते हैं अर्थात् ये तीन अंग प्रायः पिता के शुक्र (वीर्य) के परिणाम स्वरूप होते हैं - १. अस्थि (हड्डी) २. अस्थि के अन्दर का रस ३. सिर, दाढ़ी, मूंछ, नख और कक्षा (काख) आदि के बाल। ___ संतान में माता के तीन अंग होते हैं अर्थात् ये तीन अंग प्रायः माता के रज के परिणाम स्वरूप होते हैं - १. मांस २. रक्त ३. मस्तुलिंग (मस्तिष्क)। तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तंजहा - कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सूर्य अहिजिस्सामि, कया णं अहं एगल्ल विहारपडिमं उवसंपग्जित्ता णं विहरिस्सामि, कया णं अहं अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि। एवं समणसा, सवयसा, सकायसा, पागडेमाणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। तिहिंठाणेहिंसमणोवासए महाणिज्जरेमहापज्जवसाणे भवइ, तंजहा-कयाणंअहंअप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइस्सामि, कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामि, कया णं अहं अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा झूसिए भत्तपाण पडियाइक्खए पाओवगए कालंअणवंकखमाणे विहरिस्सामि।एवं समणसा, सवयसा, सकायसा पागडेमाणे समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ११५।। कठिन शब्दार्थ - महाणिज्जरे - महा निर्जरा वाला, महापजवसाणे - महापर्यवसान वाला, अहिग्जिस्सामि- पढूंगा, एगल्लविहारपडिमं - एकल विहार पडिमा को, अपच्छिम मारणंतिय - सब के पश्चात् मृत्यु के समय होने वाली, संलेहणा - संलेखना, झूसणा झूसिए - शरीर और कषायों को कृश करके, भत्तपाणपडियाइक्खिए - आहार पानी का त्याग करके, अणवकंखमाणे - इच्छा न करता हुआ, पागडेमाणे- चिन्तन करता हुआ। भावार्थ - तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है अर्थात् इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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