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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ २२९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 सेहपडिणीए। भावं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा - णाणपडिणीए, दंसणपडिणीए, चरित्तपडिणीए। सुयं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा - सुयपडिणीए अत्यपडिणीए तदुभयपडिणीए॥११३॥ __ कठिन शब्दार्थ - वेउव्विए - वैक्रियक, तेयए - तैजस, कम्मए - कार्मण, गुरुं - गुरु को, पडुच्च - अपेक्षा, पडिणीया - प्रत्यनीक-शत्रु के समान प्रतिकूल, थेर पडिणीए - स्थविर का प्रत्यनीक, गिलाण पडिणीए - ग्लान प्रत्यनीक, सेह पडिणीए - शैक्ष (नवदीक्षित) प्रत्यनीक। भावार्थ - नैरयिक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं यथा - वैक्रियक, तैजस, कार्मण। इसी प्रकार असुरकुमारों के भी तीन शरीर कहे गये हैं और इसी प्रकार नागकुमार आदि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक सभी देवों के वैक्रियक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं यथा - औदारिक, तैजस और कार्मण। वायुकायिक जीवों को छोड़कर चौरिन्द्रिय जीवों तक सभी के औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं। गुरु की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक यानी शत्रु के समान प्रतिकूल कहे गये हैं यथा - आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, स्थविर का प्रत्यनीक। गति की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं यथा - इहलोक प्रत्यनीक यानी अज्ञान तप करके शरीर को कष्ट देने वाला, परलोक प्रत्यनीक यानी विषय कषाय में रक्त रहने वाला, उभ्यलोक प्रत्यनीक। समूह की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं यथा - कुल प्रत्यनीक यानी एक आचार्य के शिष्य समुदाय का प्रत्यनीक, गण का प्रत्यनीक, साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ का प्रत्यनीक। अनुकम्पा की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं यथा - तपस्वी प्रत्यनीक, ग्लान प्रत्यनीक, शैक्ष प्रत्यनीक यानी नवदीक्षित प्रत्यनीक। ___ भाव.की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं यथा - ज्ञान प्रत्यनीक, दर्शन प्रत्यनीक और चारित्र प्रत्यनीक। . .. . विवेचन - वायुकायिक जीवों में औदारिक, वैक्रियक, तैजस और काण ये चार शरीर होते हैं । तथा तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों में भी उपरोक्त चार शरीर होते हैं। मनुष्यों में पांचों शरीर होते हैं। यह तीसरा स्थानक होने से उनका कथन यहां नहीं किया गया है। तपस्वी, रोगी और नवदीक्षित ये अनुकम्पा के योग्य हैं इन पर अनुकम्पा न करने और न कराने से इनका प्रत्यनीकपना होता है। . उत्सूत्र प्ररूपणा करना ज्ञान की प्रत्यनीकता है। शंका कांक्षा आदि करना दर्शन की प्रत्यनीकता है और चारित्र के विरुद्ध प्ररूपणा करना एवं आचरण करना चारित्र प्रत्यनीकता है। . तओ पिइयंगा पण्णत्ता तंजहा - अट्ठी, अट्ठिमिंजा, केसमंसुरोमणहे। तओ माउयंगा पण्णत्ता तंजहा - मंसे, सोणिए, मत्थुलिंगे॥११४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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